रविवार, 17 जुलाई 2011

कविता से कविता तक

प्रसंगवश         
अमृत-कलश की तलाश में खुद से जूझता 
आधी-सदी के अनुभवों का स्वप्न:
                         कविता से कविता तक  
          
साथियों !  सोच रहा हूं, बात कहां से शुरू करूं ? कल सुबह और रात के पूरे घटनाक्रम के बाद मन काफी बैचेन और विचलित है । ऐसे में सीधा मुद्दे पर आना मेरे लिए सहज नहीं है । खैर ! प्रसंगवश जब बात से बात निकल ही आई है तो आप से भी साझा कर लूं ।
हुआ यूं कि कल सूर्य की सुनहली किरणों से नहाया ‘पहला सुख निरोगी काया’ के शाश्वत मंत्र का जाप करते हुए मैं घर के सामने ही  अवस्थित गांधी पार्क में चला आया और खुद को अपने ही शरीर के चक्कर लगाते पाया । मैं तन से बाॅडी बनाने में जुटा था पर मन छोटे भाईयों की शादी, धर्मपत्नी के माईग्रेन, बड़ी बच्ची के रिश्ते, बच्चों की पढाई व कैरियर तथा कार्यालय के तमाम लम्बित कार्यो से अटा था । चेतना न जाने कौन-कौन से रंग दिखा रही थी और लोकाचार के बहाने दिमाग को कैसी-कैसी वर्जिश करवा रही थी ।
खैर ! बहरहाल किस्सा यूं शुरू हुआ कि मेरा ध्यान अचानक भटक कर दूर बैंच पर बैठे सीनियर सीटिजन की ओर चला गया । मेरी आंखों के अक्स में उसकी पीठ थी । मुझे लगा, अरे ! यह तो मेरे ही संगी-साथी-सखा-मित्र है । मैं दिल से उपजे अतिरिक्त अनुराग के चलते अपने तमाम झमेलों को वहीं छोड़ भागता-सा उसके पास जा पहुंचा । आहिस्ता-से अपनी हथेली उसके कंधे पर रखी और  भरे गले से सिर्फ यही कह पाया -‘साहित्यराम ! तुम यहां ?’
वह गड़बड़ाया, मेरा हाथ हटाया, कुछ झुंझलाया, कुछ झल्लाया, कुछ तिलमिलाया और फिर मुझे जोर का झटका धीरे-से देकर वह जवां बुजूर्ग कुछ यूं बड़बड़ाया -‘आपकी तारीफ ? मैं साहित्यराम नहीं, साहबराम हूं ।’ फिर बिना कोई मौका दिए मैंने उसे नजरों से ओझल पाया । 
मित्रों ! यह सही है कि मेरी आंखें कमजोर है ।  मेरी दूर की दृष्टि ठीक नहीं है पर वह तो मेरे बिलकुल नजदीक था । मैंने चश्मा भी पहन रखा    था । नहीं, मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकती । वह साहित्यराम ही था । विचार प्रांत के संवेदना नगर वाले चेतना मौहल्ले का विचार वासी । सौ टका वही । सही कहता हूं मैं । शत-प्रतिशत वही, आपका और मेरा साहित्यराम । देश-समाज का संगी-साथी साहित्यराम । लोक मंगल का चितेरा  साहित्यराम । संस्कृति-सदाचार का वाहक साहित्यराम । वही दबंगी स्वभाव, वही अलमस्त अदा, वही अक्खड़पन, वही रौब-रूआब । हां, संस्कार और चरित्र में मुझे जरूर कुछ बदलाव लगा ।  न जाने क्यूं वह खुद के होने को नकार कर स्वयं को साहबराम बता रहा था । यही वह कारण था कि मेरी निरोगी काया से जुड़ी तमाम वर्जिशें चेतना कुण्ड में आकर ठहर-सी गई । मैं लोक के तत्सम-तद्भव स्वरूपों में भेद की शक्ति खो बैठा । 
अब आप ही बताईये ! ऐसे में क्या कोई सहज रह सकता है ? हमारा कोई अपना या यूं कहूं- हर दिल अजीज अपना इस तरह हमारी रागात्मकता व परिचय के तमाम बंधनों को सिरे से खारिज करके चल पड़े, तो क्या हमें पीड़ा नहीं होगी ? उसके इस आचरण व व्यवहार से क्या अप्रभावित रह पायेंगे ?
शायद नहीं । इसीलिए मैं विचलित था । पूरी तरह गड़बड़ाया हुआ । मेरा यह बेहाल हाल देख कर श्रीमतीजी के भीतर शक्ति स्वरूपा मंगला आ विराजित हुई । वह भिन्न-भिन्न तरीकों से मुझे ढांढस बंधाती रही, आश्वस्त करती रही । ईश्वर सब ठीक करेगा, आप तनाव मत लीजिए ।  अब आप ही बताइये, उस भली मानुष को कैसे बताऊं कि मेरा रोग क्या है ?
वक्त की अपनी नीयति है । उसे रोक पाना या थाम पाना सम्भव  नहीं । जैसे-तैसे दिन गुजर गया । दिन-भर साहित्यराम के सामाजिक सरोकारों, निजत्व के प्रसंगों, उसके विविध प्रसंगों-संस्मरणों में उलझा, सुलझने के लिए हाथ-पांव मारता रहा पर हुआ यूं  कि मैं इसमें गहरे-दर-गहरे उतरता-डूबता रहा । 
गिल्सन का यह सूत्र कि सुंदर चीजों पर यकीन बनाए रखिए । याद रहे, सूरज डूब गया तो वसंत भी नहीं आएगा, ही मेरा एक मात्र आलम्ब   था । ‘एक सख्श हर दिन संगीत सुने, थोड़ी-सी कविता पढे और अपने जीवन की सुन्दर तस्वीर रोज देखे.... उसे सुन्दरता की परिभाषा तलाशने की जरूरत नहीं । क्योंकि भगवान ने सारे संसार का सौंदर्य उसकी झोली में डाल रखा है ।’ गोएथे के इसी परामर्श को मान कर मैं धीमी आवाज में जहां संगीत सुन रहा था, वहीं मेरी आंखों में ‘कविता से कविता तक’ की पुस्तक समाई थी । भूख, गरीबी, अकाल, अनाचार, व्यवस्थायिक विद्रूप, सामाजिक विचलन, नैतिक मूल्यों के क्षरण, चेतन-अवचेतन के देखे-अनदेखे जीवन सत्यों, फूलों की सरगम के बीच बिखरी हुई मौसम की लय को साधता-अंवेरता न जाने कब नींद के आगोश में जा समाया । 
आंख लगे थोड़ा ही वक्त हुआ होगा कि मैं ‘कविता से कविता तक’ में बुने तकरीबन आधी सदी के अनुभवों का स्वप्न लिए फिर से साहित्यराम के समक्ष उपस्थित था । उसका दरबार सजा था । इस बार वह अकेला नहीं था । उसका पूरा कुनबा लम्बी कविता यानि माई, कविता, गीत, गजल, रूबाई , नवगीत व दोहासिंह सभी मौजूद थे । 
-‘अरे ! तुम तो वही सुबह वाले ही हैं । तुम तो साहित्यराम हो ना ? फिर अपनी पहचान छुपाने का मतलब ?’
-‘शांत, दोस्त ! शांत । मुझे पता है कि तुम काफी विचलित हो । थोड़ा धैर्य धरो, तुम्हें सब कुछ समझ आ जाएगा ।’
मैं कुनमुना कर रह गया । भावनाओं में बह गया । मंत्र-सम्मोहित-सा बंधा-बंधा उसकी सारी बातें सह गया ।
-‘तुमने ठीक पहचाना था दोस्त । मैं ही तुम्हारा साहित्यराम हूं । एक वक्त था जब साहित्य का अर्थ सिर्फ और सिर्फ कविता से लगाया जाता था । समाज के मंगल और लोक कल्याण का आधार यही हुआ करती थी । पर समय के साथ जरूरतें और आवश्यकताएं भी तो बदलती है ना मित्र ? भिन्न-भिन्न तरह के नये-नये रोग सुनने में आ रहे हैं, जिनका पहले कभी नाम भी नहीं सुना हमने । ऐसे में क्या चिकित्सक उन्हीं परम्परागत औषधियों से उपचार कर पाता है ? नहीं ना ? उसे वक्त के बदलाव को, समय के मिजाज को आत्मसात करके ही उपचार के तरीके का निर्धारण करना पड़ता है, वरना दैनन्दिन मूल्य बोध से, नवीन संस्कारों से साक्षात होते समाज द्वारा उसे नकार दिया जाएगा । यही आधार सत्य साहित्य के मामले में लागू होता है मित्र । लोगों की रुचि, मिजाज, तहजीब, तमीज और तासीर सब कुछ बदल रहा है तो फिर तुम मुझे परम्परागत ढांचे में ही क्यों कैद रखना चाहते हो ?’
-‘पर तुम्हारे नाम बदलने से इसका क्या मतलब ?’
-‘मतलब है मित्र । आज वक्त बदल गया है । यह साईबरयुग है । पूरा विश्व आठों पहर, चैबीसों घण्टे हमारी एक अंगुली के क्लिक के तले दबा रहता है । हर व्यक्ति जुदा टेस्ट के रोग से ग्रस्त है । ऐसे में मुझे तो बदलना ही था । अब तुम्हीं बताओ - आज कितने लोग हैं जो महाकाव्य लिखते या पढते हैं ? चरित्र चित्रण की गुंजायश अब नहीं रही मित्र । साहित्य का सामाजिक उत्तरदायित्व भी तुझ से छिपा नहीं है । सभी की पसंदगी का खयाल और अंवेर होनी चाहिए ना ? यही कारण है कि कविता आज कई रूपों में तुम्हें देखने को मिलती है । समझे ?’
साहित्यकार का नाम बदलना अब भी मेरे पल्ले न पड़ा था ।  मैं अपनी असहमति जताना ही चाहता था कि माई  बोल पड़ी -‘यह जो तुम कविता से कविता तक का ग्रंथ सीने-से चिपकाये हो, क्या तुम्हें इसमें तीन पीढियों के संस्कार नहीं मिलते ? तकरीबन आधी सदी के जज्बे, जज्बात, जिद्द, जुनूून और जरूरत का प्रतिदर्शन नहीं दिखता ? श्री रामगोपाल शर्मा ‘दिनेश’ की लम्बी कविता ‘आत्म निर्झर’ क्या तुम्हें संस्कारवान पुरातन समाज और कविता की अनुगूंज से गंुजित नहीं करती -‘
वह देख रहा आकाश वही
जिसको उसने मथ डाला था, 
धरती से द्यौ तक चह जिसमें
फैला बन अहम निराला था:
वह तो अभाव से भरा हुआ
वे ज्योतिपिण्ड न उसके हैं ।
वे सब धरती के सहगामी,
सब पात्र प्रणय के रस के हैं ।
दीदी ! तुम भी हर वक्त अपने ही जमाने में जीती रहती हो । अब वक्त की धार व पाठकीय मिजाज बदल गया है । कवि किसी भी परिस्थिति में नैराश्य से नहीं जुड़ना चाहता । हर हाल में आशावान बना रहता है । अंधेरे की कोख में छिपे उजाले को देखता और रचता है । उसकी यही आस्था और प्रगतिशीलता सामाजिक समरसता और उन्नयन का आधार तैयार करती है । कवि विजेन्द्र अपनी कविता ‘आशा’ में यही संदेश देते हैं । मुक्त छंद कविता ने हस्तक्षेप किया -
इसी अंधेरे में उगेंगे
पंखधारी प्रकाश-कण
जो दिखायेंगे मुझे
मेरा जीवन पथ  ।
डूबने दो सूर्य को
उन पहाड़ों के पीछे
उदित होने की नई आशा से  ।
देंगे प्रकाश वही मुझे
जो आए हैं चीर कर
अंधेरे के मर्म को ।
हमारे यहां का मौसम भी मन के भावों की तरह बदलता रहता है । गर्मी को रेखांकित करती कवि जगदीशचन्द्र शर्मा की कविता ‘गर्मी’ की ये पंक्तियां अपने आंतरिक सौंदर्य के चलते बरबस ही पाठक को अपने में ले कर भीतर तक गर्मा देती है -
सीने पर उभरे हैं
प्रश्न-चिह्न चोटों के,
झेलने पड़ते हैं
वार कई सोटों के ।
मन ही मन दबती है
दर्द भरी सिसकारी,
लू की ही छूट रही
धुआंधार पिचकारी । 
बसंत के आगमन के अहसास को कवि भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’ कुछ यूं बयां करते हैं -
राग की गोदी में झरते हुए स्वर
तैरने लगते हैं जब
पंखेरूओं की पांखों पर
और दिशाएं बन जाती है मोरचंग ।
मौसम की वैणी में
एक साथ गंुथने लगते हैं
जब शब्द और स्वर
और भर जाते हैं जगह-जगह रंगों के मैले
तो लगता है बसंत आ गया है । 
‘आप लोग अपनी ही हांकते रहेंगे या मेरी भी कोई सुनेगा ?’ गीत ने उलाहना दिया और मुंह मरोड़ लिया । यह देख कविता चुप हो गई । साहित्यराम ने उसे लड़ाते हुए कहा-‘बेटी । तू तो आम जन मानस का कण्ठ-हार है । तुम्हारी बदौलत ही तो लय, सुर व ताल के रसिक मुझसे रू-बरू हो पाते हैं । प्रसिद्ध गीतकार मरूधर मृदुल ने अपने गीत ‘हम’ में तुझे ही तो रचा है -
खुद पांचाली भरी सभा में
तन नापे और चीर उतारे
दहलीजों के सन्नाटों में 
चीखों के दहके अंगारे,
धन की आग लपेटे तन पर 
ऐसी नार नवेली हम
जिसकी सारी कटी लकीरें
ऐसी एक हथेली हम ।
अब मुझमें समकालीन संदर्भो के तमाम प्रसंग और मूल्य समाहित हो गये हैं । अब सिर्फ लय-ताल का मैल मात्र नहीं, वक्त की नब्ज बन गई हूं मैं । मेरी दृष्टि प्रत्यक्ष और पाश्र्व दोनों सूत्रों पर बनी रहती है । समाज का चरित्र भी अब मेरी काया में समा गया है । नमूना देखिए श्री विश्वेश्वर शर्मा के गीत ‘हम बहारों के काटे हुए हैं’ की इन पंक्तियों में - 

गोश्तखोरों के हम जानवर
काटने को बनाये गये हैं,
काले सांपों के चूमे हुए हैं
जंगली रीछों के चाटे हुए हैं ।
जोर से गीत गाया नहीं है
सच किसी को जताया नहीं है
जो दबाने से बजती है घण्टी
बो बटन तो दबाया नहीं है ।
डुगडुगी के डराये हुए हैं,
बांसुरी के ही डांटे हुए हैं ।।
मनुष्य अब पहले जितना सहज नहीं रहा । भीतर कोहराम मचा रहता है, आग सुलगती रहती है, फिर भी सब कुछ ठीक होने का स्वांग करता है । इन्हीं स्थितियों को गीतकार बलवीरसिंह करूण अपने ‘ऋतुगीत’ में इस प्रकार बताते हैं -
विध्वंसों के पंख लगाये
हम जाने किस ओर चले
नवोन्मेष की लिप्साओं में
सुख का कंठ मरोर चले...
शायद नई सभ्यता ने ही
पर काटे उल्लास के
महके कम दहके ज्यादा हैं
टेसू सूर्ख पलाश के । 
मैं मात्र दर्शक बन कर रह गया । सब कुछ यंत्र-चलित-सा था । गीत जम्हाई लेने को रूकी नहीं कि गजल शुरू हो गई । एक वक्त था जब गजल मात्र रूप-सौंदर्य के वर्णन तक सीमित थी । अब तो पूरा सामाजिक परिदृश्य हमारे भीतर समा गया है । हमें चाहने वाले सिर्फ हम से ही रुचते हैं । सत्ता की कृपाकांक्षा में कलम घिसने वालों को ललकारते हुए वह डाॅ. मनोहर प्रभाकर की यह गजल सुनाने लगी -
गई कलम की धार कहां है ?
खनक रहा कलदार जहां है ।
सर्जक सत्ता के गिरवी हैं,
सच का पहरेदार कहां हैं ?
दूर उजालों में जो बस्ती 
वहां तीज-त्यौंहार कहां है ?
गजल नवराग का आह्वान करने ही वाली थी कि नवगीत बीच में ही कूद पड़ा । आज लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वे लम्बी-लम्बी रचनाएं पढे और उनका अर्थ भीतर उतारे । अब तो हमारा वक्त है । कम से कम शब्दों में अपनी सम्पूर्ण अर्थवत्ता के साथ पूरा परिदृश्य उत्पन्न हम ही कर सकते हैं । हमारी आंतरिक लय भी हमारे जुड़ाव का मार्ग प्रशस्त करती है ।  श्री राम जैसवाल की ‘शहर’ शीर्षक से संकलित इन चंद पंक्तियों में बदलाव के तमाम परिदृश्य साकार हो उठते हैं -
कैसा हो गया 
इस शहर में अपना होना
कि दर्पण में तुम्हें
अपने साथ ढूंढते 
दर्पण ही हो गई जिन्दगी,
जिसमें दिखाई तो पड़ता है सब
पर हाथ नहीं आता कुछ भी । 
आज वातावरण में दहशत इस कद्र छा गई है कि कोई भी भला आदमी घर से बाहर तक नहीं निकलना चाहता । क्या पता कब उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जावे ? कवि नरेश मेहन अपनी ‘सिर’ रचना में खुद के बहाने समूचे समाज के लिए इसी चिंता से ग्रस्त दिखते हैं -
घर से निकलते
अपना सिर
धड़ से अलग कर हथेलियों पर ले लेता हूं
...
जब लौटता हूं तो अपना सिर
धड़ पर लगा कर
शाम को गिनता हूं परिवार के सिर
कहीं किसी का सिर
हथेलियों पर तो नहीं रह गया ।
रात का वक्त था और बाहर अंधेरा काफी गहरा गया था । ऐसे में नवगीत ने जम्हाई लेने के लिए अभी पूरी तरह अपना मुंह भी न खोला था कि रूबाई ने उसकी अंगुली दबाई और खुद मैदान में कूद आई । डाॅ. पद्मजा शर्मा की ‘इस ब्रह्माण्ड में’ की ये पंक्तियां तल्लीन भाव से कुछ यूं सुनाई -
न इस सृष्टि में
 जन्म-मरण है
न उत्पत्ति-विनाश है,
है तो बस चैतरफा
प्यार का प्रकाश है ।
इस सृष्टि में झरने हैं
न बरसात
नदी न समन्दर
युगों से बह रहे हैं
मैं और तुम । 
‘अरे परम आदरणियों ! अब क्या बच्चे की जान ही लोगे ? मैं शक्ल-ओ-सूरत में छोटा हूं तो क्या हुआ, अर्थ का गांभीर्य तो मुझ में भी उसी रूप में बसता है । मैं भी सामाजिक हूं । समाज में रहता हूं, इसी को जीता, रचता और भोगता हूं । कुछ तो मेरी भी सुन लो ।’ दोहासिंह जो अब तक सबकी सुन रहा था, का धैर्य चुकने लगा । उसने अपना मिजाज और मनगत डाॅ. विद्यासागर शर्मा के शब्दों में कुछ ऐसे सार्वजनिक किया -
अब दिन में भी डर लगता है, लगता था जो रातों में ।
अंधियारों में चोरी होती, ठग ठगते अब बातों में ।।
उत्सव और विवाह में अब, घर गौण हुआ सड़के चमकी ।
आंगन में खाते थे खाना, फंक्शन आज कनातों में ।।
टूटा-बिखरा दिखता कुनबा, अब सांझा चुल्हा नहीं रहा ।
हम टूटे बटन कोट के हैं, क्या बचा  रिश्तों-नातों में ।।
‘माफ करें साहित्यराम !  ‘कविता से कविता तक’ की आपने पूरी यात्रा करवा दी पर मेरा प्रश्न अब भी अनुत्तरित ही है कि आपने नाम क्यों बदला ?’ मैंने अपने भीतर कहीं कुलबुलाते और यक्ष बनते जा रहे प्रश्न को फिर उछाला ।
अरे भाई ! इस आधी सदी में जब तुम्हारी तीन-तीन चार-चार पीढियां तुम्हारे वंशजों के रूप में फल-फूल रही है, तो क्या मेरी वंश-वृद्धि नहीं   होगी ? बरसों पहले के तुम्हारे अल्हड़ बालपन को आज लोग ठाकुर साहब कह कर सम्बोधित करते हैं और तुम्हारी छाती चैड़ी हो जाती है, तो क्या मैं अपनी इन शाखाओं से मुदित न होऊं ? तुम इसे विखण्डन कह सकते हो, पर यह वास्तव में तो मेरी समृद्धि है । वक्त की मांग और समय के मिजाज के चलते चाहे में अलग-अलग रूपों में जाना जाता हूं, पर खून तो वही है । मेरे कुनबे के सामाजिक सरोकार और प्रतिबद्धताएं तो वही है ना ? इतना कुछ पाकर क्या मैं साहब नहीं हो सकता ? आज हर पल जब हमारा अहसास बदलता है । संवेदना और विचार का फलक रूप परिवर्तन करता   है । रिश्तों के अर्थ और सम्बन्धों के सामाजिक संदर्भ व मायने बदलते हैं । ऐसे में किसी पुस्तक में  जब तीन पीढियां अमृत-कलश की तलाश में खुद से जूझ कर आधी-सदी के अनुभवों का स्वप्न बुनती है तो क्या मैं यथावत रह सकता हूं । नहीं, यह समाज के साथ न्याय नहीं होगा । यह सही है कि काफी कुछ छूट भी गया है पर संवाद और संकलन की अपनी सीमाएं होती  है । वक्त की अपनी मर्यादाएं होती है ।  इसलिए मैं जो कभी कविता के रूप में परिभाषित होता था, आज भी उसी आत्मीयता से स्वीकारा जाता हूं । हां, मेरा रूप-स्वरूप और परिवेश अवश्य बदल गया है । सम्बोधनों में नाम अवश्य बदल गया है, पर मेरा हेतु व प्रयोजन आज भी वही है । तभी तो श्री मुरलीधर वैष्णव कहते हैं -
चीत्कार करती है वह तब
जब एड्सग्रस्त वेश्या
अपने संसर्ग से
दर्जनों को संक्रमित कर
प्रतिशोधवश अट्टहास करती है ।
मित्रों ! मेरी कविता फिसल रही है
मुट्ठी में बंद बालू रेत-सी
भटक रहा हूं मैं
बदहवास-सा
अपने ही बनाये बियाबान में
किसी अमृत-कलश की तलाश में । 
‘ऐ भैया साहित्यराम ! काहे इत्ता इतराते हो ? डा. भगवतीलाल व्यास के सुधी सम्पादन में ‘राजस्थान के कवि’ भाग-4 का थोड़ा-सा रूप निखार का हुआ, तुम तो कपड़ो में नहीं समाते हो । का तुम नहीं जानते कि इन्हीं तीन पीढियों के कई ख्यातनाम कवि छूट गये हैं । ठीक है, उनकी अपनी हदबंदी थी, सत्तर लोग ले लिए, आखिर कितने समाते इस एक पोथी में । पर यह तो तुम भी जानते हो कि कई शामिल कवियों की चयनित रचनाओं से इतर दूसरी कविताएं ज्यादा अच्छी थी । का भगवतीलालजी के इस कथन से तुम्हें पूर्ण छूट मिल गई कि कविताओं के बारे में मैं खुद कुछ नहीं कहूंगा, ये खुद बोलेगी ? ना ही भाई साहित्यराम, ना ही ! जब प्रतिनिधि संकलन की बात करते हो तो रचनाएं भी तो प्रतिनिधि ही होनी चाहिए ना ? प्रकाशित-अप्रकाशित का झण्झट भी न था, तो फिर पांच-सात मामलों में यह लापरवाही क्यों ?’न जाने कहां से पड़ौसन आलोचना आकर साहित्यराम को खरी-खोटी सुनाने लगी । 
‘अब कैसा लग रहा है आपको ? रात को आप नींद में न जाने क्या क्या बड़बड़ा रहे थे, तो डाॅक्टर को दिखा कर नींद का इंजेक्शन लगाया    था ।’ श्रीमतीजी चाय का कप लिए मुझे जगा रही थी । कहीं कुछ नहीं था मेरे आस-पास । हां, ‘कविता से कविता तक’ की पुस्तक जरूर अब भी मेरे सीने से लगी थी ।    
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साथियों ! मेरा औपचारिक पत्र तो यहां पूरा हो गया है परन्तु काफी कुछ ऐसा है जो छूट गया है । कुछ समय-सीमा के कारण, कुछ मेरे अल्प ज्ञान व समझ के कारण तो कुछ मेरे प्रस्तुति के तरीके कारण । हां, मैंने प्रस्तुति का यह तरीका जरूर इसीलिए चुना ताकि नाम गिनाने के उपक्रम से बच सकूं, पुनरावृत्ति को रोक सकूं । मित्रों, मैंने सिर्फ कुछ कपड़े की कतरनें आपके अवलोकनार्थ नमूने के तौर पर आपको सौंपी है । थान काफी भारी और रंग-रंगीला है । कपड़े में काफी जगह बीच में भी अलग से डिजाईन है जो कतरनों में दिखना सम्भव नहीं है । अतः मैं तो यही  कहूंगा कि यदि वास्तविक कपड़ा देखना है तो आपको पूरा थान देखना पड़ेगा । 
धन्यवाद ।

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  • पुस्तक - कविता से कविता तक (राज. के कवि श्रृंखला का चैथा भाग)
  •          सम्पादक - डा. भगवतीलाल व्यास
  •          संस्करण - 2011 (प्रथम),  मूल्य - 375 रुपये
  •          प्रकाशक - राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर ।
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पाठक-मंच पत्र वाचन 
         (दिनांक 17.07.2011) 
    आयोजक - हिन्दी विश्व भारती अनुसंधान परिषद, बीकानेर
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शनिवार, 14 मई 2011

सोमवार, 28 मार्च 2011

‘आज रो राजस्थानी साहित्य अर छीजती संवेदना


अबार १२ अर १३ मार्च २०११ नै राजस्थानी भाषा, साहित्य अर संस्कृति अकादमी, बीकानेर अर प्रग्य़ालय संस्थान, बीकानेर रै भैळप मांय ‘आज रो राजस्थानी साहित्य अर छीजती संवेदना (बीकानेर सम्भाग रै संदर्भ में)‘ आयोजित हुयो ! ओ सम्मेलन पैली २६-२७ फ़रवरी नै होवणो हो ! भाई श्री कमल रंगा म्हनैं  ‘इक्कीसवैं सईकै री राजस्थानी कविता अर छीजती संवेदना (बीकानेर सम्भाग रै संदर्भ में)’ विषय माथै परचै रो काम सूंप्यो !  म्हैं १२ मार्च नैं किणी दूजै कार्यक्रम में हामळ कर राखी ही ! अबै दिक्कत आ ही कै कमलजी मानै ई नीं ! वांरो केवणो हो कै म्हैं दूजै कार्यक्रम जिको तीन बज्यां हो, तांणी फ़्री हुय जावूंला पण म्हनैं इण में बैम हो ! छेवट म्है सोच्यो कै क्यूं नी कमलजी रै नांव कागद लिख देवूं ! मौको लागसी तो पढ देस्यूं, नीतर कमलजी बांच दैयसी ! म्हारै इण तरीकै नै सम्भागियां पसंद करयो ! वगत री संकडायत धकै ओ मत्तै ई एक नूंवो प्रयोग हुयग्यो ! ओ मूळ कागद आपरी निजर है !
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मानजोग मंच नै म्हारो वंदन अर आप सगळा हाजिर-नाजिर  ग्यानी-ध्यानी संभागियां नै सादर  जथाजोग ।
म्हैं रवि पुरोहित हाजिर हूं  ‘इक्कीसवैं सईकै री राजस्थानी कविता अर छीजती संवेदना (बीकानेर सम्भाग रै संदर्भ में)’ रो जातरा-वृतांत लैय नै आप गुणीजनां री इण ग्यान गोठ में । इण जातरा में आपां आमीं-सांमी हुयस्यां  मन री जागती जीवन जोत सूं, दैसूंटै री पीड़ सूं, गीता ग्यान अर इण री जोत उजास सूं, धंवर पछै रै सूरज सूं, रूई मांयली सूई सूं अर बात तो ही री कुचरण्यां सूं । सागै ई आपां मिलस्यां मरूधर म्हारै देश सूं, मुट्ठी भर उजियाळै रै पळकै सूं, वगत रै वैग सूं, डाण्डी सूं अणजाण बोलती सुरतां नै ओस री बूंदां रै गुलदस्तै सूं । इण जातरा में आपां बंतळ करस्यां बीनणी रै परवानै सूं, मीरां रै उजास भरियै सुपनां सूं, चिड़ी री बोली लिखतै सोनल बैळू रै समदर, धोरां-धोरां पाळां-पाळां चालती रेख री चिड़पड़ाट सूं । बीकानेर सम्भाग री राजस्थानी कविता री इण जूंण जातरा में आपां रूबरू हुयस्यां  महाराणा प्रताप रै प्रताप सूं, आंख्यां देख्यै साच री पंचलड़ी सूं अर सुण ले भाईला आंख भर चितराम रै हेत रै हेलै सूं । इण विचार गेलै में ढूंढस्यां म्हारै पांती री चिंतावां, तिरस री तासीर अर आं सूं बचाव सारू ल्यावस्यां संजीवणी ।
आं सब सूं पैली म्हैं अेक बात साफ करनो चावूंला कै म्हनैं भाई कमलजी रंगा रै आदेश मुजब छीजती संवेदना नै आधार बणा’र एक परचो आप सांमी राखणो है पण म्हैं माफी चावूंला । परचा तो देवी-देवतावां अर ग्यानी-ध्यानी ऋषि-मुनियां रा हुवै । म्हैं ठहरयो निरो मूढ बेअकल लोभी गृहस्थ । परचो देवणै री म्हारै मांय कुव्वत -सामरथ कै ऊरमा कठै ? म्हैं तो फगत सिरजण फूल रो भंवरो बणनो चावूं । सद्मूल्यां रो रसपान करणियो भंवरो । इण वास्तै म्हैं फगत कागद बांच सकूं । पत्र रूप । साहित्यिक पत्र री आपरी मर्यादावां, सीमावां, काण-कायदा हुवै पण म्हैं म्हारै इण पत्र नैं आं सब सूं पैली ही मुगत कर लैवणो   चावूं । क्यूं कै म्हैं जिण पत्र री बात कर रैयो हूं, इण रो कोई शास्त्रीय स्वरूप नीं है । ओ साव निजू नै अणगढ पत्र है । जियां कै एक सम्बन्धी रो दूजै सम्बन्धी नै, बाप रो बेटै नै कै भाई रो भाई नै कै पछै किणी नातै-रिश्तेदार कै यार-भाईलै नै लिख्यो जावण वाळो पत्र । इण वास्तै म्हारै इण पत्र नै साहित्यिक अर शास्त्रीय मानदण्डा अर नैम-कायदां सूं परै हट’र जे साव निजू पत्र रूप लेवोला तो म्हनैं अर आप सगळा नै रुचैला ।
इण कागद रो संदर्भ बो ई है -‘इक्कीसवैं सईकै री बीकानेर सम्भाग री राजस्थानी कविता मांय छीजती संवेदना री अंवेर ।’  अठै एक बात भळै म्हैं निवेदन करनो चावूंला कै बरस 2000 सूं लैय नै 2010 तांई बीकानेर सम्भाग रै कवियां री छपी थकी पोथियां जिकी म्हारी जाणकारी में है, वांरी संख्या ४३ सूं बत्ती बणै । हुय सकै कई पोथियां तांणी म्हैं अल्पज्ञ पूग ई नीं सक्यो होवूं । पोथ्यां री विगत कै कवियां रा नांव गिणावणा भी इण छोटै कागद में सम्भव नीं है । पण ओ भी भरोसो दिरावूं कै बै सगळा मौजीज कवि म्हारै काळजै में ठावी ठौड़ राखै ।
तो आपरी निजर है म्हारो ओ कागद जिको म्हैं लिख्यो है म्हनैं नूंतणिया अर इण सम्मेलन रा संयोजक भाई कमल रंगा रै नांव ।
आदरजोग भाई कमलजी,
राजी खुशी तो थे सदां रैवो ई हो, कीं नूंवा-नूंवा हुवोला । थांरी रळी हरमेस काळजै कूदड़का मारै । सम्मेलन री सफळता सारू आपनै आगूंच रंग । पण कमलजी, थे करी म्हारै मांय खोटी है । थे कैयो छीजती संवेदना पर परचो है । पण थे अेकर ई आ नीं बताई कै आ छीजती संवेदना किण री ? कवि री, कविता री कै पछै पाठकां रै मिस समाज री । खैर ! थे तो करी जिसी करी, म्हारो राम रूखाळो । कवि अर उण री कविता री छीजती संवेदना नै म्हैं छोड दिया है । क्यूं कै अठै म्हैं दोस्तोवस्की रै पख रो हामी हूं कै -‘सुन्दरता ई छेवट इण  दुनिया नैं बचावसी ।’ जद तांई जीवन में कोमळता अर रूप-सौंदर्य बचियोड़ो है तद तांई ई जीवन जीवन है । मानवीय संवेदना बिना साहित्य री जाण संभव नीं है । साहित्यकार होवणैं री पैली शर्त उण रो संवेदनशील होवणौ है । सादगी नैं असंवेदनशील बणावणों, भाखर सूं भाटा भांगणैं रै समचै ठा नीं कित्ता ई दवाब उण रै अवचेतन माथै पड़ै पण अेक रचनाकार तमाम अमानवीय, हिंसक अर डरपाऊ स्थितियां बिचाळै आपरो मारग ढूंढ लेवै ।’ इण दीठ म्हारी जातरा रेवै समाज री छीजती संवेदना रै  ओळै-दोळै ।
    मैक्सिम गोर्की रै संदर्भ सूं बात करां तो साहित्य में दो मूळ धारावां कै प्रवृत्तियां मानी जावै: अेक रोमांसवाद री नैं बिजी जथारथवाद री । अरथ री दीठ सूं जथारथवाद मिनख अर उण री जीवण स्थितियां रो इस्यो सांचो चितराम है जिकै माथै कोई रंग-रोगन नीं लगायोड़ो होवै । रोमांसवाद री कैई परिभासावां दिरीजी है पण ओजूं तांई कोई इसी ठीक-ठाक कै व्यापक परिभासा साम्हीं नीं आयी है कै जिण माथै सगळा साहित्यग्य अराय, अेकमत कै सन्तुष्ट होवै। रोमांसवाद में दो बिलकुल अलग-अलग नैं विरोधी प्रवृत्तियां में भेद होवणों चाहिजै । अेक धारा है थिर नैं निस्चेस्ट अर दूजी सक्रिय नैं क्रियाशील । थिर रोमांसवाद मिनख रै जीवन नैं रंग-रंग उण नैं सन्तुस्ट करणैं धकै मिनख रो ध्यान आसै-पासै री दुनियां सूं हटावणै री कोसिस करतां थकां अंतस मन री अंवळायां रै जंगळ में निस्फळ आत्मदरसण कै जीवण री अबूझ आडियां जियां कै प्रेम, मिरत्यू अर बीजी अणचींती निराकार अबखायां में उळझायो राखै । इण दीठ सूं देखां तो लगै-टगै सगळा राजस्थानी कवि जथारथवादी कवि है । क्यूं कै बै आपरै सगळै रचना संसार में कठैई भी पाठक नैं आळो-टाळो करतां कै मनोविग्यान री अंवळायां में उळझांवता नीं लखावै । बै सीधी-सपाट नैं आमीं-साम्हीं छाती-ठोक बात करै ।
      जद इतिहास पसवाड़ो फोरै, जुग बदळै तो साहित्य सिरजण में ई लहरां उठै अर आखती-पाखती होवण वाळी इण हलचल कै राग-रोळै सूं साहित्य ई अछूतो कै अलायदो नीं रैय सकै । अैड़ी स्थितियां में नूंवा-नूवां नायक साहित्य री जमीं माथै प्रगटै नैं पसराव लेवै । आं नूंवी हलचलां सूं साहित्य भी उद्वेलित नैं प्रभावित होवै । नित नूंवा परिदृश्य अर रचना फलक आंख्यां साम्हीं खुलै ।  लेखक ई फगत किताबां  मांय सूं उठा’र  कोई कूंत कै नितार आपरी रचना में नीं घाल सकै ।  आ तो जीवण सूं उण री  रागात्मकता अर बंतळ री सगती नैं सिरजण मनगत, अंतस प्रेरणा अर विचारधारा री प्रेरणा री देन होवै ।
रसूल हमजातोव रो रै सबदां कैवां  तो  कविता गुलाब रै बगीचै कै क्यारां में खिलणियां फूल नीं है । वठै तो अै आपणै सैमंुहडै होवै, वांनै ढूंढणा नीं पड़ै । कविता तो उजाड़ मैदानां कै ऊंचै चरागाहां में खिलता फूलां दांई है । जठै हर पग माथै अेक भळै खूबसूरत फूल पावणैं री आस कै लालसा बणी रैवै । विचार अर भावनावां पंछी है, विसय आभो: विचार अर भावनावां हिरण है, विसय जंगळ: विचार अर भावनावां बारहसिंगा है, विसय डीगा डूंगर: विचार अर भावनावां मारग है, विसय नगर - जठीनैं अै मारग ले ज्यावै अर आपस में जा मिळै ।
परिचै, मित्रता, प्यार, नेह अपणायत अबै बगत रै परवाण आपरा अरथ खो रैया है । हर सम्बन्ध री आपरी न्यारी तासीर होवै, न्यारी गैराई होवै पण बगत बायरो इण अरथ-भेद नैं ले बैठ्यो । कह्यो जावै कै जिंदगी में चार चीजां घणी महताऊ होवै- विस्वास, वाचा, रिस्ता अर दिल । अै टूट्यां आवाज तो नीं होवै पण पीड़ अणूंती  होवै । इणी पीड़ कै दरद में राजस्थानी कवि आपरी रचनावां रो आधार ढूंढै । आ ऊण्डी ढूंढ, गैरी दीठ, संवेदना अर ओ खुलो मन-दरसण ही बै आधार है जिका राजस्थानी कविता नैं अेक मुक्कमल ठौड़ माथै घणी ठसक सूं थापित करै अर छीजती मिनख संवेदना धकै कूंत री मांग करै ।
भाई कमलजी ! म्हैं म्हारी बात रो आधार तैयार करण वास्तै सब सूं पैली भाई शिवराज भारतीय री पोथी ‘उजास रा सपना’ में छपी आ कविता ‘ मिनख घट्या-सै’र बध्यो’ आपरी निजर करणी चावूं, जिकी कै संवेदना रै छीजतै रूप नै सहजां ई परकासै ।
सैर बध्यो / गांव घट्या / गुवाड़ घट्या / मेळ घटी / मिलाप घट्यो / अपणायत अर हेज घट्यो /  सै’र बध्यो । मांचा घट्या / मुड्डा घट्या / पिड्डा घट्या / पाटड़ा घट्या / कुर्सी बधी / मेज बधी / सोफा बध्या
बैड बध्यो / सै’र बध्यो  / साफा घट्या / पगड़ी घटी /धोती अर अंगरखी घटी /बेस घट्या/लाज घटी देह रो दिखावो बध्यो/ सै’र बध्यो । खेत घट्या/ दरखत घट्या / करसा घट्या/ कारीगर घट्या / मील बधी /मजूर  बध्या/मैणिया चुगता टाबर बध्या/ सै’र बध्यो । /रीत घटी/ गीत घट्या /प्रीत घटी /मीत घट्या/मिनख घट्या/आबादी बधी/दोगलोपण दुराव बध्यो/ सै’र बध्यो ।
कमल भाई सा ! मिनख री कहाणी भाखरां नैं भांग आग पैदा करणैं री कहाणी है, डूंगरा नैं काट, गेलौ बणावणैं री कहाणी है, चींत री पूठ में उठतै रोळै अर रोवणैं री कहाणी है । आ जीवन जातरा बीज सूं फूल तांई री जातरा है । सरबनास रै पछै धरती माथै घर मांडणैं  री खैचळ जातरा है । दुख सूं दौलड़ीज नैं गोडां बिचै सिर देवणैं री ठौड़ आपरी जड़ां नैं मजबूत करणैं अर कादै में कमल उगावणैं री कहाणी है । राजस्थानी कवि कविता-दर-कविता पाठक नैं ओ ही अैसास करावै अर कविता रा अै पोथी गुलदस्ता कांदै रै छूंतकां दांई परत-दर-परत नूंवा रंग दिखावै । अेड़ौ ई अेक रंग भाई कुमार अजय री पोथी ‘संजीवनी’ री कविता ‘लोग बोळा है’ में देखण नै मिळै -
जावै है जठै तांणी /म्हारो हेलो/ लागै है जाणै/लोग बोळा है । पसरी है पीड़ म्हारी /जिण कांकड़ तांणी /लोग पाथर है/ जखम देंवता पाथर । बीत्योड़ी रात/ जांणै/ भुळावण अर संवेदनावां नै/ खावण नै आयी ही/ अर सगळो / मनखापणो सामट’र/ व्हीर हुयी । कदास ! म्हैं ई पाथर हुय जांवतो/ पाथरां रै सै’र मांय !

      सुवारथ, छळ-प्रपंच, भ्रस्टाचार आज रै  मिनख री सगळी कोमळ-निरमळ संवेदना नैं किचर काढी । अेक साव मिनखैड़ो मिनख इण आपा-धापी में राग, अपणायत अर सम्बन्ध सौ-क्यूंई भूल रैयो है । स्थितियां मिनख नै इण भांत खुद सूं सैंगद कर लियो है कै  जुगां-जुगां सूं भोळप दीठ सूं देखिजणियो मिनख रै  चौफेर झूठ रो राज कायम हुयग्यो है । भाई ओम पुरोहित ‘कागद’ आंख में चितराम भरता ‘झूठ री ओट’ केवै-

सांच कठै
झूठ ई भंवै
चोगड़दै जगती में ।
आत है !
कद सांच है भी तो
कित्ती’क ताळ,
छेकड़ तो
झूठ री ओट में
लुकणो है सांच !’

राजस्थानी कवि जिण सहज भाव, भासा सूं सगळी परम्परा नैं सबदां, चित्रां अर बिम्बां में परोसै, घणौ सुखदायक अर मनभावण लागै । कांई नहीं मिळै आं कवितावां में ? कैलाश कबीर रै सबदां कैवां तो सगळो भारतीय लोक जीवन खूंवै भीज्यौ गमछियो न्हाख्यां अर पाणी री लोटड़ी हाथ में लियां, चीणा चाबतो आपरै विस्वास री धरती माथै चालतो दिखै । आज रा नूवैं जुग-बोध नै आथूणी संस्कृति रा हिमायती भलांई इण नै
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पिछड़्यौपण मानै पण आपणी संस्कृति रो मूळ ओ निस्छळ नै निस्पाप लोक जीवन ई है । राजस्थानी  काव्य साधक आपरी संस्कृति नै पल-छिण खातर ई आंख्यां सूं अदीठ नीं होवण देवै । कविता जद तांई आपरी ग्राम्यता, संस्कृति सूं अेक-मेक नीं होवै तद तांई दूजै किणी आंदोलन कै कूका-रोळै रो कोई अरथ नीं होवै । आज बखत भलांई धड़ाबंदी अर घेराबंदी रो होवै पण संस्क्रति अर लोकपथ माथै जीवन सागै चालती, बतळांवती अर गांवती कवितावां ई सामाजिक चेतना रो आधार बण सकै ।
कवि विचारै कै सरकारी योजनावां आपरी बुणगट सूं लेय’ नैं लागू होवणै तांई पूगतां-पूगतां तहस-नहस होय जावै । काळ रै बीखै मरूभौम रै वासिंदां खातर पीवणै रै पाणी री योजनावां ए.सी. री ठण्डक में बैठ बणाईजै अर कई दफै री आं योजना-निरमाण बैठकां में होठां री तिस बादाम रै ज्यूस सूं मिटाईजै । जिका लोग इण योजना-निरमाण सूं जुड़îा होवै, बै न तो कदैई काळ भोग्यो अर न ई कदैई अेक घड़ियै पाणी खातर कोस खण्ड रो पैण्डो करîो, जणै बै योजनाकार मरूभौम री अंवळायां-अबखायां कियां जाणै-समझै ? ओ ही कारण है कै सरकारी स्तर माथै बणनै वाळी घणखरी योजनावां जरूरतमंद तांई जरूत मुजब फायदौ नीं पुगाय  सकै । क्यूं कै योजनाकार संवेदना विहूण मशीन बणग्यो लखावै । जणै ई भाई संजय आचार्य ‘वरूण’ आपरी पोथी ‘मुट्ठी भर उजियाळो’ री कविता ‘म्हनैं जावण दे’ में लिखै-

जावण दे म्हनैं पूठौ
कठैई गूंगी अर बोळी नीं कर देवै
म्हारी संवेदनावां नै
अठै री चीखती जिनगाणी,
कठै मिटा नीं देवै,
म्हारै मन री धड़कन नै,
अठै रो कानफाड़ू दौड़तो-भागतो हाको,
कठै म्हैं भी अेक
मषीन बण’र नीं रैय जावूं
थारै इण मषीनी सै’र मांय ।
बदळतै मूल्यां रै इण रापा-रोळै आम आदमी खुद नैं असहाय, निरुपाय अर बैचारगी रै भंवर पजियोड़ो पावै कमल सा । उण में असुरक्षा री भावना मांय तांई बैठती जाय रैयी है जिकी मिनख री वीरता, निरभयता अर हूंस नैं कुचळ रैयी है अर आठूं पौर, चौबीसूं घण्टा रो अेक डरपाऊ माहौल बणा रैयी है । धरम, संस्कृति, नैतिकता नैं भूल सुवारथी मिनख मिनखपणैं रै खातमै सारू त्यार ऊभा है । आज आखै चौखळै डर, भय, अशान्ति, मारकाट, लड़ाई-झगड़ा अर अनीति रो बोलबालो है । समाज में साम्प्रदायिकता अर जातिवाद रो जहर धुंओ बण पग पसारतो जा रैया है । अैड़ै अंवळै-अबखै बगत में भी कई लोग संवेदनशीलता अर अपणायत भूल राजनीति करै । मिनखपणो भूल, सांग रचै । तद कमलजी, संवेदना री छीज रो कांई आंकोै ? भाई मदन गोपाल लढा आं स्थितियां सूं आंती आय आपरी पोथी ‘म्हारै पंाती री चिंतावा’ री कविता ‘उडीक’ में केवै -

रळ सको तो
अेकामेक हुय जावो
इण मुखौटा आळी भीड़ में
का पछै म्हारै दांई
खींच लेवो मून
इण पतियारै सागै
कै कदैई तो आवैला कोई
म्हारी पीड़ परखणियो
आवै भलांई आभै सूं । ( पृ.20)

भाईजी ! अपणायत अर मोह बै तत्व है जिकां साम्हीं मिनख निबळो अर कमजोर पड़ जावै । नेह अर अपणायत जठै होवै, वठै नफै-नुकसान री कूंत कै इणां रो विचार नीं होवै। पण आज जमानो बदळ रैयो है । अबै आं वास्तै मिनख रै जीवन में कोई जग्यां नीं रैयी है । आज फगत अर फगत सुवारथ पूरीजणो चाहिजै । अपणायत अर रिश्तां धकै ठगीज बगनै होयै मिनख रो कुण धणी धोरी ? सांग तो घणो ई धरम-करम अर पुण्यात्मा रो रचां पण करम साव उन्दा । बोली जमा बारै आना । जणै ई तो कवि सुनील गज्जाणी नै आपरी कविता पोथी ‘ओस री बूंदा’ में भी सन्यासी रो रूप दिखावणो पड़ै -

तीरथ-जातरा कर आयो
म्हारो पड़ौसी
अर सुणांवतो आपरी जातरा कथा
अेक उबाउ नॉवल ज्यूं-
म्हैं वठै माथो टैक्यो,
इत्ता रिपिया दान कर्या,
चारां धामां रा कर लिया दरसण,
अबै बणूलां म्हैं सन्यासी ।
उणी वगत अचाणचक
उण री मां हैलो दियो-
‘बेटा ! हाल, निरा दिन हुया,
म्हनैं ठाकुरजी रा दरसण करावण नैं ले चाल नीं’
-‘ओफ्फो ! रोज-रोज रो ओ झंझट,
म्हारै सूं नीं होवै ओ,
थनै कित्ती बार कैयो है...’
बो जोर सूं मुंहडो तड़कतो उथळो दियो !’

झूठ अर फरेब अबै धरती माथै इत्तौ बधग्यो कै मिनख तो मिनख जीव-जिनावर कै पंखेरू ई इण छळ-छदम सूं आंती आयग्या लागै । अेक आम आदमी ठा नीं कित्ती ई दफै दिन में झूठ बोलै पण अंतस रै उणियारै पछतावै रा कोई भाव नीं उगटै । ठीमरपणौ अर वाचा लारै जान देवणैं रो जमानो तो सा‘व किस्सा कहाणी दांई लागै । मिनख दूजै सूं डरै जिको तो डरै पण अबै तो खुद रै बिडरूप सूं ई घबरावै । भाई प्रमोद          शर्मा ‘बोली तूं सुरतां’  री कविता ‘हांसता लोग’  में मत्तौ-मत्ती ई ढबती हंसी में इणी बिडरूप नै सांमी राखै-
हांसता-हांसता
अचाणचकै चुप क्यूं हो ज्यावै लोग
घणी देर तांई
इकलग क्यूं नीं सकै हांस ।
सोचूं: स्यात हांसता-हांसता दीख जावै
वांनै आपरो ई चै’रो
जिकै नै देखण री
नीं हुवै बां मांय हिम्मत !
    
आज समाज री व्यवस्थावा, विसंगतियां अर विरोधाभास पैलां सूं घणां तीखा हुयग्या है । अेकै कानीं लुगाई आपरी जुगां-जुगां सूं चाली आ रैयी ‘इमेज’ नैं तोड़’र लगै-ठगै सरबनाशी रूप में आगै आंवती दिखै तो दूजी कानीं मध्यमवरग री कस्बाई लुगाई आज भी आपरै जूनै अर पारम्परिक स्वरूप में बदळाव सूं सा’व अछूती, मानतावां अर संस्कारां रो भार ढोंवती कै समझौतां री सलीब माथै टंगी निगै आवै । युवा पीढी रा लिखारा इण चुनौती नैं घणी शिद्दत सूं स्वीकारी है अर मीडिया कै बगत रै अणथक ओपरै दवाबां रै बावजूद साहित्य में आपरी प्रभावी हाजरी मांडी है । श्री देवदास रांकावत इणी अंतस वेदना जिकी कै रिश्तां री छीजती संवेदना नै सांमी लावै, नैं आधार बणाय’र श्री रांकावत आपरी पोथी धोरां धोरां पाळां पाळां री कविता ‘ नूंवो नकोर ब्याव’ में आपरा भाव इण भांत परगट्या है -
इत्तैक में बीनणी आयगी, बा आतां ही बोली-
बजार घूमण जा रैया हो, मेरै कै तोफो ला रैया हो?
म्हैं कैयो- ओ देख ! तोफो तो आयो पड़्यो है पढ लै,
जी तो था मांय अड़्यो है पण बो कुचमादी अदायां खड़îो है ।
बा बोली- पढ जाती तो थां जिसां लारै कोनी आती !
ब्याव थां सूं नीं, किणी होनहार रोजनेता सूं रचाती,
पछै मुख्यमंत्री बण जाती अर थां जिसां पर हुकम चलाती !’

आज रै वैश्वीकरण रै इण दौर में काव्य सिरजण घणौं अबखो काम है कमलजी । सिरजण सारू जोश, जिद्द, जज्बै, जज्बात अर जुनून जेड़ै उपकरणां री घणी जरूत होवै। जिण देश में आज भी आयै दिन गांव-सैर में लाचार-मजबूर लुगायां नैं नागी कर समूचै गांव में घुमाई जावै, बलात्कार अर मान-हीणता रा मुकदमा जठै बरसूं-बरस कचैड्यां में वकीलां री रोटी बण धूड़ खांवता रेवै, दायजै रै नांव पर जठै जींवत लुगाई नैं बाळ दी जावै, अन्धविस्वास रै चूंतरां जठै मिनख री बळी दी जावै, बठै आथूणी नूंवी आधुनिकता अर संरचनावाद जैड़ा वैचारिक बदळाव रो असर समकालीन राजस्थानी कविता में ढूंढणो फालतू अर भोळपणौ है पण छीजती संवेदना री पीड़ रै अैसास री आदत धकै टूटतै नारी मन री संवेदना सूं कवि कियां अळगो रैय सकै ? इणी वास्तै श्री कमल रंगा ‘तिरस री तासीर’  पोथी री कविता ‘प्लीज डोण्ट डिस्टर्ब’ में इण चितराम नैं इण भांत रचै, जिण में पीढी री बदळती सोच अर संस्कारां सूं उपजी पीड़, उण रो छीजतो स्वरूप अर बदळतै वगत रै वायरै नैं अेकै सागै चितारै -

सियाळै री रात
सीरख में मुंहडो ढक्यां
दादोजी गंूथै हा गूंथणा
आपरै बाळपणै रा
करै हा गणमण-
‘धूण्या तापता टाबर
धर मजलां धर कूंचां
चालती कहाणिया
हुंकारा भरता टाबर
कहाणी रा राजा-राणी
जागता रैवता आखी रात....’
इण गत बरडावणो दादै रो
कर्यो डिस्टर्ब
वांरा पोता-पोती रै
मनचावै सीरियल ‘बुगी-बुगी’ में
वां मांय सूं अेक बोल्यो-
‘दादा ! प्लीज डोंट डिस्टर्ब ।’
अर कर दियो वोल्यूम तेज
जिण में दब जावै
दादाजी री वाणी
मर जावै दादाजी रा सुपना ।

भाईसा ! राजस्थानी कवितावां रो मूळ स्त्रोत गांव अर कस्बै रो जीवन, उण री सहजता, सरलता, सौम्यता अर आं नैं लीलण सारू पसराव लेंवती व्यवस्थावां है । गांव रै गुवाड़ में कुलांचा-भरतो भौळपणौ अर सीधौपण है, बित्तौ ही सीधो कविता-विन्यास कै काव्य बुणगट डॉ. मदन गोपाल लढा आपरी कवितावां में अंगेज्यो है  या पछै इयां कैवां कै  कवि आपरी कविता नैं समाज सूं उठा-उठा’र हुवै ज्यूं री त्यूं राखतो गयो है । ‘ऑरिजनलटी’ री आ खास बात कविता दरसण नैं जीवंत करै, जिकी पळ-पळ छीजतै गांवई रूप अर संस्कृति री निश्छलता रै लोप होंवतै रूप री पीड़ नै अंवेरता थकां आपरी कविता ‘उडीकै है पीपळ’ में बसबसीजतै काळजै लिखैै -
पीपळ रै डावै पासै/भंवरियै कुअै माथै/पणिहार्यां री लैण कोनी टूटती । गौर पूजण/ जद गांव री छोर्यां-छापर्यां/पीपळ हेठै भेळी हुय’र/ गीतां रा सुर छेड़ती/उण घड़ी पीपळ रै हिवड़ै/उमाव मावड़तो कोनी । काती में भौरानभोर/ गांव री लुगायां/भजनां भैळी/पैलपोत पीपळ ई सींचती । पण अबै कठै बो कुंभाणो/हणै तो साव उजाड़ है/ओळूं  नै टाळ’र । जमींदोट हुयोड़ा ढूंढा/बिना छात रा आसरा/बिना भींता री बाखळ/माणस बिहूणो बांडो बूचो गांव/ घणो अणखावणो  लागै !’
लूट, हत्या, दंगो-फसाद, आगजनी, निरवासण अर भूखमरी जैड़ी स्थितियां मिनख नैं उदासी अर अेकलपणैं री सुरंग में धकियावण रै साथै ही समूची सिस्टी रै प्रति नकार भाव री प्रवृत्ति नैं जलम देवै पण विचारवान अर दीठवान मिनख घणैं बगत इण ओपरै दावणैं री सरम नीं राखै । छेवट में जद मिनखपणैं रो मूळ भाव जीवटता अर अस्तित्व रच्छा री अंतस चेतना उण नैं चेतावै तो आं सगळी स्थितियां रै बावजूद बो जिण गेलै आगै बधै, बो होवै चुनौती रो अर संघर्ष रो । इण चुनौती भाव सूं आप री सोझी रै तांण बो अंतस कळीजतो श्री श्याम महर्षि री कविता पोथी ‘सोनल बैळू रो समदर’ री कविता ‘आज री ताजा खबर’ री संवेदना रूप प्रगटै-

सुणो-सुणो / आज री ताजा खबर/ रेलगाड़ी पटरी सूं उतरी/ दो मरîा, पांच घायल/ सै’र रै बस अड्डै माथै/ तीन जणां री पैट्यां उतरी/ अेक सूं हाथापाई/ दो री जेबां कतरीजी/ सिनेमा घर रै लारै/ पैट्रोल पम्प सूं/ अस्सी हजार लूंटीज्या/ अजै तांई / कोई नीं पकड़ीज्यो । ठाकुरजी रै मिंदर सांमी/सिंझîा सात बज्यां/ गवाड़ री मीटिंग मांय, पळटूरामजी विधायक बोल्या/जनता मांय ईमानदारी रो प्रचार होवणो चाईजै/ अम्बेडगर सर्किल माथै मंत्रीजी रो भाशण/ षिक्सा मांय सुधार करस्यां/ सुणो-सुणो आज री ताजा खबर/अखबार मांय हैडलाईन/ दूरसंचार मांय देष आतम निर्भर/ काळा आखरां सूं भरîा है अखबार रा पाना/ पण चिमली री इज्जत माथै डाको/ भूरै हरीजन री टूटती सींव/ मोच्यां रै बास मांय पाणी रो तोड़ो/ नीचलै बास मांच बीजळी री लूक मींचणी/ अखबार रा समचार नी बण्या है ओजूं तांई !

राजस्थानी रो थाम थामणिया भाईजी ! बाजारीकरण अर आथूणी संस्कृति सूं जे कोई सब सूं बत्तौ प्रभावित होयो है तो बा है भारत री   नार । अणूंतै अरथ रो लोभ अर बदळतै वगत री पुरवाई उण नैं बैसरम, बेैहया, लालची अर गुनैगार बणा दी  है । घर-परिवार री इज्जत सारू जिकी लुगाई आप री नस उतार दैंवती पण चरित्तर माथै लांछण नीं लागण   दैंवती । सासरै में ऊभी आई, आडी जास्यूं रै सिद्धांत माथै बगत बितांवती लुगाई जिकी रो मुंहडो तो दूर, नख ई कदै कोई पाड़ौसी नीं देख सकता, बा ही आज बदळाव रै हींडै झूमै । तद ई तो शिवराज भारतीय लिखै-
बै मायां डाकण बणी,
बाप कसाई जाण
गरभ मांय नुचवाय दै
बाळकड़ी रा प्राण !

बीजै जिको ही काटै अर खावै री मानता अबै घणी पुराणी होयगी । आज आस्था अर विस्वास री जग्यां भय अर लोभ आ बिराज्या है । हद तो आ है कै भगवान ई मिंदर छोड़’र पम्पलेट में औतार लैवण लागग्या । मैनेजमेंट रो ओ कन्टंेट मिनख री रही-सही आस्था, विस्वास, संवेदना नैं खतम कर न्हाखी । गूंजै री गरमी सारू होंवता अै कारनामां कद तांई निभैला ? अेकै कानीं मिनख आस्था रो अैसास दिरावण सारू पैदल जातरा करै पण जिण देव री आस्था परकासै, उणां रा गुण-भाव अंगै ई नीं लखावै । निशान्तजी आपरी पोथी ‘धंवर पछै सूरज’ री कविता ‘रामदेवजी’ में इण भाव नैं ‘ इण भांत अंवेरîो है -

करो हो रूणीचै तांई जातरा
जगावो हो जम्मा,
राखो हो थैई
पण थे ई रामदेवजी दांई
कदै किणी राकस नै ललकारîो है?
लगाया है अछूता नै गळै,
करी है कीं रोगी-दोखी री सेवा ?

मिनख री तागत अकूंत होवै कमल भाईसा । बो जे आपै अर चेतै मांय होवै तो न तो उण नैं कोई हरा सकै, न लूट सकै । बो हारै तो फगत आप रै जोर सूं कै अपणायत धकै होयै धोखै सूं । आज रै बगत में घणौ संकट छळ-कपट रो है । मिनख मिनख नैं ठगै । मिनख ठगीजै तो फगत प्रेम अर नेह री दीठ । डरै तो फगत संसारू इज्जत सूं । काळजै री इणी पीड़ अर कण्ठां मांय अबोल मूसीजती-छीजती अर पसरती  संवेदना री सबळी लैरां पाठक रै ऊण्डै अंतस उतर बंतळ करती मंगत बादळ री  ‘मीरां’ पोथी री अै ओळियां समूचै संवेदना फलक रो खुलासो करती लखावै-

‘जुगां-जुगांतरां सूं भटकती
आंख्यां में तास, आस हियै में
Û8Û
डार सूं अळगी तिसां मरती मरगी
अधरां पर अटक्योड़ी अेक गूंगी प्रार्थना
गुमग्या जिण रा सबद, बा फरियाद
अेक निरव कंवळी राग
नीं समझ सक्यो जिण नैं कोई
कण्ठा भीतर घुट-घुट रैयगी जिकी
मुधरी-मुधरी कसक लियां
बादळां री छियां रो ठण्डो
हिवड़ै में पळतो
सीप में जियां मोती
भोळो उज्ज्वळ उरणियै सरीखो
अणचीन्हो अनुराग संस्कारां री परतां तळै
सूतो हो कठैई सागर री गैराई में !

कमलजी !
वैश्विक जीवन-दीठ, बदळतै मूल्यां रो अैसास अर सामाजिक बिडरूप नै स्थितियां धकै छीजतो संवेदना पख राजस्थानी कवि री संवेदना री जाग बणै । । भाव, भावना कै संवेदना रै बिना मिनख सा’व गूंगो  होवै । संवेदना मिनख रै वजूद री पिछाण होवै । संवेदना मन री अतळ गैरायां कै मिनख रै इहलोक, परलोक नै त्रिलोक रो ग्यान होवै अर ओ ग्यान जद समाज रै साम्हीं आवै तो अभिव्यक्ति गिणीजै । आखै देस - समाज में इस्यो कोई जीव-जिनावर कै मिनख नीं है, जिण रै कै मन में संवेदना नीं होवै । क्यूं कै जे किणी सजीव देही में भाव, विचार कै चींत री चेतना कै सोचण-समझण री सामरथ नीं होवै तो पछै सजीव अर निरजीव में कोई भेद नीं रेवै । इण विचार रै धकै कैय सकां कै मन री उडार भावनावां, सुख-दुख री चींत, पीड़ रो अैसास अर चोखै-माड़ै री पिछाण जीवन-सगती सूं जीव नैं होवै बा उण री संवेदना ही  होवै । इण संवेदना रो सार्वजनीकरण कै दूजां सूं साझौ इण रै अभिव्यक्ति रूप नैं परगटै ।
भाईसा ! घणा ई कलमधणी है, जिका समाज री छीजती संवेदना री छीज नै अठै ई ढाबण सारू खैचळ कर रैया है । जद इक्कीसवैं सईकै धकै बात करां तो श्री सत्यनारायण इन्दौरिया, रतन राहगीर, नीरज दइया, जुगल किशोर पुरोहित, सीताराम महर्षि, राजेन्द्र स्वर्णकार, नथगिरी भारती, जोगासिंह, गौरीशंकर मधुकर, पं. राधेश्याम जोशी, सतीश छिम्पा, रामकुमार घोटड़, मणिकांत सोनी, विश्वनाथ भाटी, योगेश कानवा, संतोष माया मोहन, रामस्वरूप किसान जैड़ा कित्ता ई कवि है जिका मिनख मन री छीजती संवेदना नै समूची तागत अर शिद्दत सूं अंवेरनै अर चितरावणै में लागयोड़ा है । म्हारो तो रूं-रूं वां नै निवण करै ।
भाईजी ! छेवट में आ ई कैय सकां कै इक्कीसवैं सईकै री राजस्थानी कविता में संवेदना रो उत्ताल स्वरूप निगै आवै । पूरी मजबूती सूं इण संवेदना री अभिव्यक्ति पाठक नैं मानसिक स्तर माथै खुद सूं अेकाकार कर  लेवै । अभिव्यक्ति रो ओ सबळो पख मिल्यां पछै लेखक अर पाठक री संवेदना में कोई भेद कै आंतरोपण नीं  रेवै ।  पाठक बा ई सोचै, देखै, विचारै अर चितारै जिकी कै लेखक भाव रूप में उण नैं सूंपै ।
कैयो जावै कै किणी रै करमां मांय ई कांकरा हुवै तो उण रै कोई कारी नीं लागै । संवेदना नै सागर रूप आपरै काळजै उतार सबदां में रचणिया अेक अैड़ा कवि आपणै साथै है, जिका फगत संवेदना री चितार तांण आखै देश में आपरी निरवाळी पिछाण बणाई है ! हां भाईसा ! म्हैं बात कर रैयो हूं मोहनजी आलोक री । पण म्हैं कांई करूं, करमां रो लिख्यो कुण मेटै ? म्हारै कनैं वांरी घणी ई कवितावां निजराणै रूप है पण अठै आपरै
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आदेश मुजब वांरी छपी थकी पोथी ‘चिड़ी री बोली लिखो’ री सींव है । म्हैं घणो ई माथो मारîो इण पोथी सारू, पण जुगत नीं हुई । वांरा खासमखास भाई नीरज दईया अर प्रमोद शर्माजी सूं ई इण पोथी सारू हाथा-जोड़ी करी, पण बै ई हाथ झड़का दिया । भाई मालचंदजी तिवाड़ी धीजो बंधायो कै म्हैं पोथी भिजवाय दैस्यूं पण करमां रै कारी नीं लागी । छेवट मजबूरी में म्हैं इंटरनेट रो सहारो लियो तो मूळ तो नीं पण इण पोथी री अेक कविता रो हिन्दी उथळो म्हनैं मिलग्यो ।  कमलजी, समाज आपरै ढब बेवै, उण नै आपणै रोवणै सूं अर इण संवेदना सूं
कोई लेवणो-दैवणो नीं है । क्यूं कै आपां चाहै कित्तौ ई बढिया लिखता हुवांला पण आपणो लिखियोड़ो ओजंू समाज रै सुख-दुःख रो हिस्सो नीं बण पा रैयो है । ओ ई कारण है कै समाज आपरै हाल में मस्त है पण आपां उण री दशा देख-देख रो रैया हां, कुरळाय रैया हां । मोहनजी आलोक कैवै ज्यूं ओ रोवणो ई शायद आपणी नियति है-

रो भाई रो
लगातार रो
जैसे कि हम रो रहे हैं
रात को, दिन को
अंधेरे को, उजाले को
गर्मी को, पाले को
अमीय को, विष को
तृप्ति को, तृष्णा को
रो
कि रोना ही अपनी नियतिहै
रो
कि इस रोने में ही
मनुष्यता की गति है

रो !
कवि रो !!
कि तुम्हारे रोने में
और आम आदमी के रोने में
बहुत फर्क है

रो !
कवि रो !!
कि तुम्हारे रोने से ही सुरक्षित है
आने वाली पीढियों का हर्ष ।

भाई कमलजी, थांरी म्हारी बातां अर जगत री अटकळ रै अंकोड़ियां रो कांई निवैड़ो । भळै कदैई मिल-बैठ’र करस्यां । बाबूजी, भाभीजी अर घर में सगळां नै सादर जथाजोग कैयीज्यो । छीजती संवेदना धकै ई सही पण संवेदना तो दिखाई ई है, इण सारू महेन्द्रजी खड़गावत साहब नै अर पृथ्वीराजजी रतनू नै ई सात सिलाम दीज्यो ।
थांरो ई
छीजती संवेदना वाळो 
रूळियार
 

जगजाहिर