आंखें : परिणति
आंखें
पहचानती है अब
समय की
धड़कन,
देखती है
लौकिक अटकलें,
टपकाती है
सिर्फ़
सिंदूरी खून......
आंसू
सूख जो गये हैं
व्यवस्थाओं के वशीभूत !
***
आंखें : अनुभव
आंखें
नहीं देखती अब
सांसारिक भरत-मिलाप,
घूरती है-
उजड़ती मांगों को/
महसूसती है
बेतुके
बारूदी सुरों को....
अभ्यस्त जो हो गई है !
***
आंखें : परिदृश्य
आंखें
नहीं ताकती अब
वर्षा,
तलाशती है
योजनायें,
खोजती है-
दफ़्तरिया फ़ाइलें,
निहारती है-
फ़ैमिन
कुआ-निर्माण
और कर्ज मुक्ति के
गुर,
बाबुओं की जेब में !
तजुर्बा जो ठहरा
साल-दर-साल का !
***
eye is your good poem,I also write on eye.
जवाब देंहटाएंRead eye good.
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