रविवार, 8 नवंबर 2009

राजस्थानी कविता
 
सौनचिड़ी 

सौन चिङकली
क्यूं थूं गुमसुम
क्यों जीव तङफावै,
मन री कह दै
हळकी हुयज्या
क्यूं जूण रळकावै ? 
पग-पग छेङै
बैठ्या बैरी
स्यान कचोवैला थारी,
लोक लाज री चूंदङी में
पछै नीं लागै कारी । 
मादा नांव सुणीज्यो चाहीजै
काटक गिरझ पङै घणां,
भाव-भावना खङ्या बिसूरै 
मनगत रोवै झरां-झरां....... । 
आं तिलां में तेल कोनी
दुख घणी थू पावैली,
आज थूं राणी
काल रांड बण 
आखी उतर कुरळावैली ।  
आ जूण
गळैङी कांबळ
ठा नीं कित्ता सळ पङै,
बिल-बाम्ब्यां सूं सुळ्यौ जमारो
ठा नीं कुण कद छळ बङै ? 
मान बावळी थूं सुखी है
खुलै आभै उरळावै,
जीवत जाळोटां री बस्ती
मिनख चींत गरळावै ।

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