रविवार, 22 नवंबर 2009

बिखरे पत्तों ने कहा था, अमरबेल ,अंत,बालू से तपते दिलों में






बिखरे पत्तों ने कहा था

कृपाण-सी सरसराती
पुरवाई
बींध कर चली गई
अन्तर्मन को/
चीरती-सी बह गई
पले-अधपले
‘दूध-मुंहे‘ बच्चों को

लाशों के से ढेर लग गये
टहनियों को छूते-से !

बूढाता वृक्ष
झूलता रहा
यंत्र-चलित-सा,
निर्मोही-सन्यासी बन !

समेटता रहा
बिखरती सांसें,
उलीचता रहा-
अनुभवों का अहम/
अपनी ही ‘रौ‘ में
तन्मयता से !
आस-पास के वृक्षों तले
बिखरे पत्ते
हो गये एकत्रित
पुरवाई के फ़टकारे से

-आओ !
हम लटक जायें
टूटे पत्तों की जगह
डाल पर/
करें
एक नई दुनियां का सृजन
अपने बलबूते पर....!‘

बिखरे पत्तों ने कहा
और लगे मचलने
क्रियान्वयन की उत्सुकता से !

देखा -
पुरवाई थम चुकी थी !

****




अमरबेल

बिन खाये-पिये
वह खटती रही
दिन चढे तक
अविरल-अविराम...

झाडू-पौंचा,
चौका-बासा
सब कुछ सम्भाला उसने
और अनुभवों की तरजीह से
सलीका बिछाया
बाहरी दरवाजे की चौखट तक !

पसीना
चूता रहा टप-टप,
भिगोता रहा
फटी कांचली,
उनिंदी आंखें
करती रही शिकायत !

भूख-प्यास
जताती रही विरोध
पर शिकन भी न उभरी
दादी के चेहरे पर !

सर्वांग रोमांचित था
दादी का,
भीतर की मां
देखती रही
पौत्रवधु का स्नेहिल चरण-स्पर्श,
उतारती रही बलाएं
नजर की,
कि बहू ने दादी को
अन्दर जाने को चेताया !

मांगलिक कार्य में
विधवा की प्रत्यक्ष उपस्थिति
अशुभ जो होती !

अमरलता की तरुणाई
छिन गई पल में,
कट गई डाल
साख थी जो नहीं

****




अंत

गाल फुला कर
उङाता रहा
धुंआं
‘गोल-गप्पों‘ की सूरत में
बांट-बांट कर जिंदगी-भर

किंतु
नहीं थका
उसका पौरुष

देखा-
टब की जिन्दगी रीत चुकी थी !

****



बालू से तपते दिलों में

आओ साथी फिर जगायें
सोया मन विश्वास,
विद्रूप से बीझे मनों में
लायें बासंती मधुमास ।


ऐसा कोई जतन करें
नाचे मन ज्यों मोर,
गाल गुलाबों से खिले
चाहत चांद चकौर ।

फिर तलाशें नई ऋचाएं
नव जीवन आकाश,
गढें नई जीवन परिभाषाएं
जागे मन में सांस ।

आओ ऐसा जतन करें
गूंजे गीत ज्यों कोयल कूके,
मन उम्मीदें दौडे हरिण-सी
वक्त गुजरे ज्यों हवा छू के ।

आओ ढूंढें मन हरियाली
दफन करें संत्रास,
मन-पियानों संग बजायें
धक-धक दिल आभास ।

आओ ऐसा जतन करें
फैले मेंहदी, चंपा, रानी
खुशियों की गुलाल उडायें
संग प्यार के पानी ।

इस बसंत की हर सुबह
भरे नया उल्लास,
बालू से तपते दिलों में
फैले बासंती हास ।

तितली फुदके, भौंरे गाये
गूंजे राग मल्हार,
बीन संग लहराती नागिनें
दुःख नाव ज्यों सुख पतवार ।

आओ साथी फिर सजायें
बिखरी खुशियों की घास,
पीड-जूझ के नमदे पर
उगेगा एक नया विश्वास ।

***





शनिवार, 21 नवंबर 2009

सहारा








सहारा



बिलकुल झौंपड़ीनुमा मकान । ठीक मध्य में खूंटी के सहारे लटकती हुई एक लालटेन, जो केरोसिन की अपर्याप्तता के बावजूद अपनी लौ को प्रज्ज्वलित रखने के लिए अंधेरे से जूझ रही थी ।
खट....खट....खट....खट.... की अबाध गूंजती ध्वनि वातावरण में पसरे सन्नाटे को चीरती चली गई । बाहर से आती चैकीदार की ‘पहरेदार.....खबरदार....!’ की आवाज इस खटखटाहट के तले कहीं दब कर रह गई । दरवाजा लगातार खटखटाया जा रहा था । जान पड़ता था मानो कुछ देर और नहीं खोला गया तो दरवाजे की शामत आ जायेगी ।
भीतर से आती किसी बेसहारा अबला की हृदय विदारक सिसकी धीरे-से कर्णो से टकराकर उनको सचेत करती हुई कहीं अंधेरे में लोप हो गई । गोद में लेटे बच्चे को एक तरफ खड़ा करके अभी वह पूरी तरह अपनी गर्दन भी सीधी न कर पाई होगी कि सहसा बारूद का गोला-सा फूटा । दरवाजा चरर....चर्र..... की आवाज के साथ गिर कर धरती के गले जा मिला ।
मकान में एक साया-सा लहराया, जिसे देख कर बच्चे की किलकारीनुमा चीख फिर से खामोशी को भंग कर गई ।
‘मां .... छिप जा...... मां.... बापू.... !’ बच्चा रोते-सुबकते गुलाबी के पांवों से बुरी तरह लिपट गया ।
ने लगा ।
‘मां... छिप जा... मां... बापू....!’ बच्चे ने पहले से भी अधिक मजबूती से मां के पांवों को थाम लिया । वह गुलाबी को भयातुर नजरों से देख रहा था ।
शराबी लड़खड़ाते कदमों से आगे बढ रहा था कि सहसा लटकती लालट
‘ऐ ... स्साला, मेरा खून.... मेरी औलाद.... और हिमायत करता है अपनी मां की.... हरामी की टांगें तोड़ दूंगा ।’ इतना कह कर साये ने जेब में रखा देशी ठर्रे का अद्धा निकाल मुंह के लगा लिया और गुलाबी की तरफ ब
ढन उसके सिर से टकरा गई । ‘ ऐ... उल्लू की पट्ठी.... तू भी नखरे करती है...? ले पहले तेरा ही कल्याण करता हूं ।’ जैसे ही उसने लालटेन को खींचा, उसका ढक्कन खुल गया । जितना भी केरोसिन था, सिर के बाल भिगोता चला गया और दूसरी तरफ पास में पड़े केरोसिन के पीपे से शराबी के लड़खड़ाते कदम टकराये । सारा तेल फर्श पर फैल गया, जिसके कारण आग के शोलों ने शराबी को अपनी चपेट में ले लिया । दृष्टि-पटल पर अगर कुछ था तो सिर्फ और सिर्फ आग की लपटें । शराबी पूर्णतः आग की लपेट में आ चुका था । आग की तपिश से नशा हवा हो गया और वह लगातार मदद के लिए चिल्लाये जा रहा था ।
गुलाबी का शराबी पति भगवान को प्यारा हो गया । गुलाबी और उसके बच्चे का रोते-रोते बुरा हाल हो गया । उनका चेहरा किसी मुरझाये फूल और शरीर पेड़ की टूटी टहनी के समान जान पड़ता था ।
गुलाबी के पति की चिता की सभी रस्में पूरी हो चुकी थी । चिता को आग दी जानी थी । वह लगातार भगवान को कोसे जा रही थी ।
ा । पार्थिव देह राख की ढेरी में बदल गई । गुलाबी के बेटे वीरू की हृदय विदारक चीखें रुकने का नाम नहीं ले रही थी ।
चिता में आग लगा दी गई । आग के शोले हवा से बातें करने लगे । गुलाबी की आंखों में मकान में लगी आग का दृश्य आकार लेने ल
गा
ेख, वह मौहल्ले के घरों में बर्तन मांजने, कपड़े धोने और झाड़ू-पौंचे का काम करने लगी । वैधव्य और परिस्थितियों का काल-ग्रास बने उसके रूप-सौंदर्य पर धीरे-धीरे पीलापन नजर आने लगा । उसके भीतर दुःखों का ज्वार उमड़ रहा था पर किसे मतलब है पर-पीड़ा को समझने और बांटने से ? हर कोई अपना उल्लू सीधा क
पगलाया-सा राख की ढेरी के सामने खड़ा वह लगातार बड़बड़ाए जा रहा था -‘बापू.... बापू ! तुम कहां हो बापू.... ? तुम वापस आ जाओ बापू.... अब मैं मां का बेटा नहीं बनूंगा.... तुम कब आओगे बापू...?’ रोते-रोते वीरू की हिचकियां बंध गई । उस समय बाप-बेटे के प्यार के बीच शराब का कोई गतिरोध नहीं था ।
गुलाबी के जीवन का सहारा टूट चुका था । वैधव्य के चलते उसका कलेजा मुंह को आ राह था । घर काट खाने को दौड़ता । खुद की और बच्चे की भूख भयावह रूप लेती जा रही थी । पेट के गड्ढे को भरने के लिए उसे कुछ-ना-कुछ तो करना ही होगा । और कोई रास्ता न
देरने में लगा है । वह जिस किसी की तरफ भी सहानुभूति हेतु याचक निगाहों से ताकती, सबकी आंखों में वासना और तिरस्कार के भाव देख कर उसका सर्वांग कांप उठता ।
शाम का धुंधलका होने ही वाला था । गुलाबी मौहल्ले के घरों में काम करके अभी घर लौटी ही थी कि सहसा ठेकेदार के बेटे राजू ने उसे आ दबोचा । वह बहुत चीखी-चिल्लाई पर उसका सारा विरोध-प्रतिरोध राजू की बलिष्ठ बाहांे में कैद हो बेअसर हो गया । उसका रोना हवा में बह गया । कोई भी उसकी सहायता को नहीं आया । जान पड़ता था मानो पूरा मौहल्ला श्मसान के सूनेपन में तब्दील हो गया हो । गुलाबी के हृदय में सैंकड़ों चिताओं की लपटें लपलपाती जल उठी ।
दुष्ट राजू ने गुलाबी के स्वाभिमान को तार-तार कर दिया । जिस इज्जत और सतीत्व के लिए वह सब तरह के अभावों से जूझ रही थी, उन्हीं का रेशा-रेशा उधड़ कर पौर-पौर पीड़ पसराने लगा । वह रोती-कलपती रही पर नापाक राजू तो कब का जा चुका था ।
्यास बुझाने वाला राजू आज फिर आ धमका गुलाबी के पास । परन्तु इस बार न तो गुलाबी चीखी-चिल्लाई और न ही कोई प्रतिरोधी हरकत ही की । उसने चुपचाप स्वयं को राजू के हवाले कर दिया । गुलाबी में यह परिवर्तन देख कर एक-बारगी तो राजू भी आश्चर्य में पड़ गया ।
धीरे-धीरे यह गुलाबी का पेशा बन गया...रुजगार और पेट के गड्ढे को भरने का आधार बन गया । राजू अब अक्सर गुलाबी के पास आने लगा ।

धरती पर आहिस्ता-आहिस्ता पसरकती चन्द्रमा की चांदनी वातावरण की प्राकृतिक छटा को निखारने में लीन थी । सरसती
मुसीबतें आती है तो चारों तरफ से आती है । गुलाबी पर परेशानियों का एक और पहाड़ टूट पड़ा । उसके एक हाथ को लकवा मार गया । उसके सब काम-धंधे छूट गये । गरीबी में आटा गीला । वह दाने-दाने का मोहताज हो गई । दर-दर की ठोकरें और सांसारिक जिल्लत उसका जैसा नसीब बनने लगा । डूबती नाव पर कौन सवार हो, रिश्तेदार ही किनारा कर लेते हैं तब पड़ौसियों से कोई क्या उम्मीद करे ? वे सब तो महज तमाशबीन थे । वैसे भी बिना स्वार्थ के कौन किसकी मदद करता है । किसी ने सहानुभूति जतलाना भी जरूरी नहीं समझा । पति की मौत का दुःख अब भी पत्थर बना उसके कलेजे से चिपका हुआ था । विगत की स्मृतियों के थपेड़ों से उसकी सिसकियां रह-रह कर हवा में तैर जाती । अंधेरा अभी पूरा पसरा नहीं था, या यूं कहें कि गोधूलि बेला थी । किसी की आहट पाकर गुलाबी स्मृतियों की सुसुप्तावस्था से जाग उठी । कौन ? राजू.... ! हां, राजू ही तो था । अबलाओं की इज्जत से
प्या ठण्डी हवा के थपेड़े गुलाबी के कपोलों का स्पर्श करते हुए आगे कूदते-फांदते गुजर जाते... । आह.... कितना सुखमय स्पर्श.... पति की कोमल अंगुलियों का-सा स्पर्श । एक औरत इस स्पर्श की खातिर अपना सर्वस्व त्याग सकती है । इस एक स्पर्श के रोमांच से वह सदेह इस स्पर्शावली में ही समा जाने को उद्यत हो सकती है परन्तु मर्द ठहरा भ्रमर-गुणी । वह भला इस अंतरंग संवेदना को कब-कैसे समझे ? मैं क्या हूं...? कुछ भी तो नहीं..... मेरा कोई वजूद नहीं .....मैं महज एक खिलौना हूं....नहीं, नहीं... मैं कुछ हूं.... लेकिन क्या... हां.... मैं एक नारी हूं....इस जगत की जननी....सामाजिक पापों की संहारक...! आज गुलाबी स्वयं को भी पहचान नहीं पा रही थी । नारी का वजूद एक यक्ष पहेली के रूप में उसके समक्ष मौजूद था । इसकी कोई निष्चित परिभाषा नहीं । वह अपने-आप में उलझी हुई है । स्वाभिमान तो कब का धराषायी हो चुका । हां... औरत मिट्टी का घरौंदा ही तो है.... जिसे जब चाहे मनुज आकार दे देता है और जब चाहे इसके स्वरूप को पुनः मिट्टी में मिला देता है ।
का चैगा पहन कर ऐष-ओ-आराम करते हैं । जिन बिल्डिंगां की षोभा ये पुष्पलताएं बढा रही है, उससे भी अधिक उनकी चमक न जाने मेरे जैसी कितनी अबलाओं की इज्जत की होली के धब्बे और उनके जिस्म के रक्त-सने फर्ष से निखर रही है । फिर मैं व्यर्थ ही क्यों परेषान हूं ? मजबूरियों और परिस्थितियों से मुकाबले के लिए तो औरत को रूप-सौंदर्य का अचूक हथियार मिला है । यही तो उसके अस्त्र-षस्त्र ।
पाष्र्व विचार तो आत्महत्या का भी आया मगर वीरू का चेह
गुलाबी मनोद्वेगों में उलझती चली गई । अरे भगवान ! यह तूने कैसी गलती कर दी ? क्या प्रायष्चित करेगा इसका ? हां....! तूने एक अच्छा कार्य जरूर किया जिसके चलते तुम्हारा वजूद अभी लोगों के दिमाग में कायम है । वरना पता नहीं, ईष्वर नाम का कोई अस्तित्व भी होता या नहीं ? तूने औरत को एक षक्ति बख्षी है, जिससे कोई नहीं बच सकता । आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों मर्द को आखिर झुकना ही पड़ेगा । उसकी क्या बिसात जो इस वषीकरण से बच सके ? गुलाबी ज्यों-ज्यों सोचती जा रही थी, त्यों-त्यों औरत रूपी गुत्थी सुलझने की बजाय और अधिक उलझती जा रही थी । मनोद्वेगों की इस उठा-पटक से उसकी सोयी चेतना जाग उठी । अंधेरा कहीं दूर जा छिपा और चांदनी में नहा उठा गुलाबी की आंखों में समाया उसका अपना अतीत, उसका अस्तित्व । सहसा उसकी बोझिल पलकें एक विषाल बिल्डिंग पर आकर ठहर गई । बंगला.... ठेकेदार गोविंद का बंगला । रजनी की षीतलता से नहाई पुष्पलताएं.... नींव से कंगूरे तक फैली अमरबेल मानो सिल्वर-मेड हो । ये बड़े लोग इन गगनचुम्बी इमारतों में षरारफ
रा भी साथ था । फिर जान-बूझकर मौत की ओर कदम बढाना तो कायरता होगी । परिस्थितियों से घबराकर जान देना तो जीवन से हारना ही हुआ । हार मान लूं..... नहीं मैं हार नहीं मान सकती......मैं कायर नहीं हूं लेकिन अब मैं ऐसा घृणित कार्य नहीं करूंगी....दुनिया को मुझ पर थूकने का अवसर नहीं दूंगी...!’ अन्तिम षब्द गुलाबी के होठों से बाहर टपक पड़े । ‘तुम्हें अब कुछ नहीं करना पड़ेगा..!’ बोलते-बोलते ठेकेदार ने प्रवेष किया । गुलाबी आष्चर्य से ठेकेदार को ताकती रही । ‘तुम्हें सहारा मैं दूंगा और तुम्हारी जिन्दगी बनाऊंगा...... जिन जालिमों ने जुल्म किये हैं, उनसे बदला लेना है तुम्हें.....!’ ठेकेदार की नजरें गुलाबी के षरीर की गोलाइयों को मापती रही । षषि बादलों के कतरों से आंख-मिचैली करता वातावरण में पसरे अंधेरे को दूर भगाने के लिए जूझ रहा था । कभी चांद का साम्राज्य होता, कभी अंधेरे का । ठेकेदार को अपने बाहुपाष में बांध कर गुलाबी फिर से जीवन मार्ग पर चल दी । आजकल ठेकेदार अक्सर गुलाबी के घर के आस-पास नजर आता है ।



शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

सीख, दीठ



राजस्थानी लघुकथावां दीठ
ावारिस काळियो रुळतो-फिरतो अेक परायी नै अजाण बस्ती में पूग्यो । चैरावै रै चूंतरै चढ मदद सारू भूंसण लाग्यो । लाम्बै पैंडै अर भूख-तिरस सूं बेहाल बापड़ो इण आस में आंतड़्यां मसळतो रैयो कै मेहमान जाण ठियो-आसरो अर पेट रै खाडै में घालण सारू कीं मिळसी ।

ला काळियै रो भूंसणो कानां पड़तां ई बस्ती रा केई गण्डकिया भैळा हुय आया । अेक रै कान सूं दूजै रै होठां तिसळती बात बिरादरी रै सरदार तांई पूगी । यतीम अर लावारिष जाण सरदार काळियै नैं आसरो दैवणो बिरादरी रो धरम बतायो ।
र-बत्ती होंवती रैयी । छेवट में सरदार रो तख्तो पलटीजग
बगत बीत्यां मेहमान काळियो बस्ती रो रैवासी बणग्यो । कुचमादी कद सिचलो रेवै । काळियो आपरी चालाक्यां अर बुद्धि रै पैंतरां रै बळ माथै केई गण्डकां नैं खुद कानीं कर लिया । बगत बीततो रैयो अर काळियै री कुचमाद भी बत्ती-
द अर काळियो सरदार बण्यो । आज भळै अेक लावारिष कुकरियो ष्षरण सारू नींवतो बिरादरी रै साम्हीं हो पण सरदार रै हुकम मुजब बापड़ै नैं मार-कूट भजायो । बिरादरी री निजरां में कुकरियो दूजी जात रो हो । Û
सीख
दुकानदार कनैं भांत-भांत रा पोस्टर, फोटवां अर मूरत्यां तरतीब अर सफाई सूं लटकता बिक्री सारू त्यार हा । खरीददारां री अणूंती भीड़ पड़ै ही । मोल-भाव री फुरसत कठै ? लेवाळ अेक निजर भर देखतो अर अठै-बठै आंघी-खांघी आंगळ्यां टेक देंवतो । सेठ रो नौकर लेवाळ री पसंद नै गोळ कर’र रबड़-बैण्ड में घालैे अर आगलै नैं सूंप देवै । सगळो काम मषीन दांई थिर तरीकै रो ।
घणी ताळ पछै भीड़ कीं मोळी हुई तो म्हैं ई वठै म्हारी चावना ढूढण लाग्यो । ‘भाई...? बा कित्तै री है....?’ ‘बीस रिपिया ।’ ‘अर बा....?’ ‘तीस रिपिया....?’ ‘..............’ ‘आ ल्यो साब ! फगत अेक जोड़ो है...... मार्केट में स्टाॅक खतम है........पिचैत्तर लगा देस्यूं...!’
.?’ इयां कैय’र बो केई पोस्टर म्हारै आगै पटक्या । इत्तै नैं दो छोर्यां आई । दुकानदार बै रद्दी
‘इण.... नागै-भूंडै पोस्टर रा पिचैतर रिपिया...! सेठ क्यूं लूट मचावै ? राम नैं लेखो देवणो है ।’ ‘चीज रा पईसा लागै साब...! नींतर आ ल्यो.... रद़दी रै भाव तोल दैस्यूं......... अेक ‘पीस’ ई को बिक्यो नीं.... इण अठाळै री लागत भी तो निकाळणी पड़ै है, घर सूं थोड़ी ई भोगस्यूं..
.रै भाव आळा पोस्टर दिखाया । बै मुंहडो बिगाड़’र बोली -‘ कोई क्लासिक चीज देवो नीं....?’ अर पछै म्हनैं दिखायो जिको नागो-सूगलो पोस्टर जोड़ो दो सौ रिपिया में मोलाय’र व्हीर होयी । ‘......तो कांई अबै देवतावां रा पोस्टर रद्दी रै भाव ई नीं खपै.....?’ सोचतो म्हैं नूवां आया ग्राहकां री ओट लेय’र खिसक लियो । देवां रा फोटू क्लासिक फोटवां कानीं देख-देख बिसूरता रैया । Û


गुरुवार, 19 नवंबर 2009

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

रधिया

रधिया

मर-मर कर
 जीने का
 उपक्रम करती है रधिया,
 तगारी के सम्बल से
 आठ जनों की भूख को
 आश्वस्त करती है
 वह !

बल पड़ती रीढ की मालकिन/
 शर्म-शाइस्तगी से
 सजाती रहती है
 गिट्टियां
 तरल कोलतार में
 मरणासन्न रधिया
 तन्मयता से !


संवेदनायें
 मर चुकी है सड़क की
 पर कोल्तार की भूख नहीं मिटी !

लाचारगी
 पसरी रहती है आस-पास,
 भूखहा अंधियारा
 गहराता रहता है
 आंखों के आगे..
गिरा देना चाहता है
 जड़-प्राय: रधिया को
 पर मैले-कुचैले नंग-धड़ंग बच्चे
 दारूखोर पति के हाथों पिटते
 और भूख से त्रस्त हो रिरियाते
 तैर जाते हैं
 चुंधियाते कोर्णियां में/
 थाम लेते हैं कलई

परिवार-कल्याण का मुद्दा
 लगा देता है उसे
 दूने उत्साह से
 तगारी उठाने में !

ठेकेदार
 ताकता रहता है टुकुर-टुकुर
 ठण्डे जिस्म की
 मैली पिण्डुलियों को
 और महसूसता रहता है
 इनकी आग !

रधिया
 अनजान बनी लगी रहती है
 धियाड़ी पकाने में

प्रतिरोध का हश्र
 मजुरी से हटना ही होगा
  वह जानती है
दुनियावी उसूल
इसिलिए मजदूरी के वक्त
 औरत नहीं होती
 सिर्फ़ मजदूरन होती है
 जमाने की रधिया !

***

आंखें

आंखें : परिणति


आंखें
पहचानती है अब
समय की
धड़कन,

देखती है
लौकिक अटकलें,
टपकाती है
सिर्फ़
सिंदूरी खून......

आंसू
सूख जो गये हैं
व्यवस्थाओं के वशीभूत !
***


आंखें : अनुभव

आंखें
नहीं देखती अब
सांसारिक भरत-मिलाप,

घूरती है-
उजड़ती मांगों को/
महसूसती है
बेतुके
बारूदी सुरों को....

अभ्यस्त जो हो गई है !
***

आंखें : परिदृश्य

आंखें
नहीं ताकती अब
 वर्षा,
 तलाशती है
 योजनायें,
 खोजती है-
 दफ़्तरिया फ़ाइलें,
 निहारती है-
 फ़ैमिन

कुआ-निर्माण
और कर्ज मुक्ति के
 गुर,
बाबुओं की जेब में !

तजुर्बा जो ठहरा
साल-दर-साल का !
***

परम्परा

परम्परा

पगडण्डी से निकली
एक और पगडण्डी
और थौड़ी दूर चल कर
मिल गई
आम रास्ते में !

लोगों ने कहा -
समझदार थी बेचारी !
***

सेना के सूबेदार

राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के भगवान अटलानी पुरस्कार (२००८) से पुरस्कृत कविता संग्रह सेना के सूबेदार  से चयनित कविताएं



किस्मत के नायाब कारीगर
रोज बनाते हैं चेहरे,
प्यार जता कर, धमकी देकर
रोज रुलाते हैं चेहरे !

चेहरों की आबाद बस्तियां
तुड़े-मुड़े-फ़टे  चेहरे,
मुझसे मेरा राज जान कर
रोज नचाते हैं चेहरे !

दीन-हीन याचक-से लगते
करुण विलापित-से  चेहरे,
चेहरों की ही भीड़ में खो कर
रोज ढूंढते हैं चेहरे !

लोप हुई पहचान उनकी
पढे अखबार-से चटे  चेहरे,
वे, वे नहीं हैं जो वे हैं
हैं रोज बताते बिके चेहरे !

सच समय का है यही अब
भरे-भरे खाली  चेहरे,
सब जानते हैं आज रवि
क्यों नींद उड़ाते हैं  चेहरे !
**


शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

जनपथ माथै जन नीं दिखै

तिरसा
.  
जनपथ माथै
जन नीं दिखै
गुरू चेलां सूं 
पढणो सीखै 
कैङो जमानो आयो भाई
हाथी सस्ता 
मूंगा दांत 
चौडे-चौगानां बिकै !


राजघाट 
फूलां नैं तरसै
जीव-जिलफ
रोटी पर बरसै 
कैङो जमानो आयो भाई
पणघट अबै
मरै तिसायो
बाप मर्यां
बेटो मन हरसै !


संसद
वर, वर-वर नै धापी
सदाचार
बखाणै पापी
कैङो जमानो आयो भाई
काण-कायदो
चांद ईद रो
बेटो बाप नैं देवै थापी ! 


धायो,
म्हैं तो धायो भाई
खूणियां तांणी जोङूं हाथ,
पळ-पळ
मर-मर
कद लग जीऊं
थारो-म्हारो इत्तो ई साथ
मंजूर म्हनैं ई मरणो है पण
चावूं
जीवन पैलां भरल्यूँ बांथ ।

हिन्दी कविता


कब तक


आखिर कब तक
बनायेंगी घोंसले
ये भद्दी चिङियां
तुम्हारे बीझे कलेजे में
कब तक पङेगी
जयमालाएं
उनकी कबूतर-सी
गर्दन में
देश के बर्णधार
जुझारू पुष्प-से गुंथे
बेचारे
कब तक छटपटाते रहेंगे
इस कपट-कीचङ में 
छाती के छिद्रों में
चोंचे मारे मनचली
और कहे-
-आज, हमने किया बसेरा
कल 
और कोई डालेगा पङाव,
परसों
बिल्लियां करेंगी प्रसव यहां ! 
कब तक बसायेगा
छाती पर
काली चिङियाओं,
बिल्लियों को
पनपायेगा
सर्प-सपोलों को
आखिर कब तक ?


बुधवार, 11 नवंबर 2009

कल्प-अश्व असवार



कल्प-अश्व असवार
 


  कब निहारे
रूप गौरी का
कब बोले 
दो मीठे बोल,
फुर्सत नहीं फसल से उसको
स्वप्न-दृष्टि मौन-अबोल ।
आंखों में बसता केवल
फसल का पसराव, 
शादी-न्यौता
पक्की साळ
चक्षु-मार्ग यही बिखराव । 
गौरी चाहे प्रियतम का संग
आंखें उसकी कहती सब
कुछ मुंह से कब बोले,
भरी जवानी
रूप-सौंदर्य
दब गया फसल के नीचे
बंद दरवाजा कौन खोले ।
कब उबरेगा
फसल स्वप्न से सांई मेरा,
कब देखेगा 
प्यार नजर से सांई मेरा । 
दोनों संगी इन्तजार में
कोई फसल पकने के,
कोई फसल कटने के/ 
कोई कर्ज छंटने के,
कोई दर्द बंटने के । 
रूप फसल निकलना चाहे
बंद दरवाजे पार,
दोनों ही दौङते जाते
कल्प-अश्व असवार ।



यायावर की यायावरी: एक आडिटर की डायरी

पुस्तक चर्चा यायावर की यायावरी: एक आडिटर की डायरी ऽ कृति : यायावर (उपन्यास) लेखक : डा. मनमोहनसिंह यादव प्रकाषक : पुस्तक मंदिर, प्रथम तल्ला, जुबली नागरी भण्डार परिसर, स्टेषन रोड, बीकानेर (राजस्थान)-334001 संस्करण : 2009 मूल्य : 100 रुपये भाग अ: प्रस्तावना डा. मनमोहनसिंह यादव की सद्य प्रकाषित उपन्यास कृति ‘यायावर’ यहा विवेच्य विड्ढय है । कथ्य की दृष्टि से विचार करें तो इसमें कुछ भी नया नहीं है । हिम्मतपुर से जुड़े एक ठेठ गांवई गांव के वाषिंदे दम्पत्ति सुखा और लुक्खी से प्रारंभ होता है कथा का । गांव का मुख्य व्यवसाय भारत के अधिसंख्य ग्राम्यांचलों की तरह कृड्ढि है जो वड्र्ढा से जुड़ी है । काले घने मेघ आसमान में छाते हैं पर बरसते नहीं । बिन बरसे बादलों की रवानगी के चलते आभे से चिपकी भूखी आंखें बरस पड़ती है। ऐसी स्थितियों में सबके समक्ष पेट के गड्ढे को भरने की ्याष्वत समस्या सुरसा-सा मुंह -बाए उनके वजूद को लील जाने का आतुर दिखती है । इन्हीं परिस्थितियों से साक्षात करता सुखा और लुक्खी का परिवार आजीविका की संकट वार्ता में उलझा हुआ है । सुखा सिर्फ नाम का ही सुखा है वरना ्यायद उसने किसी सुख का आस्वाद नहीं किया । लुक्खी है सुख से लुक्खी । निर्बलों की कन्या राषि का ्यास्त्र पाप-पुण्य और पुनर्जन्म के लेखे लुक्खी को तारनहार दिखता है । बेचारी लुक्खी टूटते तारों में पूर्वजों को खोजती रहती है और संकटहरण करने हेतु दण्डवत आस्थावान बनी रहती है । तो दूसरी तरफ खत्म होता अनाज उन्हें परेषान करता है । सुबह क्या खायेंगे, का यक्ष प्रष्न जैसे उनकी नीयति है । गांवों का सुख-दुख महाजन से जुड़ा रहता है । यही सूक्त संदर्भ यायावर की कथा में देखने को मिलता है । सुक्खा लाचारगी और दीनता का पुतला बन महाजन संतदास की ्यरण में जाता है और स्वाभिमान को तार-तार कर आधा मण बाजरी उधार ले आता है । पूर्वजों की नजरें इनायत कहें या प्रकृति का सहज चक्र या गरीब की साधना, गांव में जम कर बारिस होती है । बारिस होते ही गांव की आंखों में नूर आ जाता है । सुखे के सामने अब संकट खड़ा होता है एक अदद बैल का । उसका खुद का बैल तो कब का भूख से आहत को मौत की गोद जा बैठा । अब हल जोते तो कैसे ? लुक्खी और सुखा दोनों ही इस संवेदन घमासान में उलझे हैं कि पास ही के गांव का अजनबी बाबू नागौरी बेल उसके खूंटे से बांध देता है । सुखा तो जैसे स्वर्ग में ही विचरने लगा । वह भगवान का आभार ज्ञापित करता है तो लुक्खी पूर्वजों का । सुखे के घर बैल बंधा होने की खबर एक के मुंह से दूसरे के कानों तक फिसलती महाजन संतदास के कान में भी पहुंची । ऐसे यदि सबके घर बैल बंधने लगे तो महाजन ने तो कर ली महाजनी । संतदास के भीतर बैठे महाजन ने करवट बदली और उधारी के बदले सुखे का बैल अपने खूंटे से बांध लिया । सुखे की सुख-कल्पनाएं धराषाई होने लगी । आंखों में अंधेरा उतर आया । अब कहां जाए । आखिर पति-पत्नी ने तय किया कि अजनबी बाबू से बात की जाए । इसी निष्चय के साथ सुखा रात के समय ही हमीरपुर में रहने वाली बूढी काकी के घर का लक्ष्य कर रवाना हो लिया । सुखे की किस्मत कहें या संयोग अजनबी बाबू वहीं मिल गया । सुखे ने अपना दुखड़ा रोया । अजनबी बाबू ने कहा कि महाजन के पाप का घड़ा भी भरेगा । उसने महाजन की उधारी के 200 रुपये सुखे को दे दिए और कहा कि पैसे चुका कर वह अपना बैल छुड़ा ले । आखिर सुखे ने बैल छुड़ा लिया और खेत जोतने में लग गया । मेहनत रंग दिखाती है - सुखे का खेत भी फसल से लहलहा उठा । इस फसल के साथ उसके कई सपने स्वतः जुड़ते चले गये । परन्तु ईष्वर को ्यायद कुछ और ही मंजूर था । इधर गांव का प्रतिनिधि किसान सुखा सुख-सागर में हिलोरे ले रहा था तो उधर महाजन संतदास अपने मुंषी हेमे की सलाह एवं सेठ कालीचरण के परिश्रय के बलबूते पर अपने वजूद को बनाये रखने के लिए नए ड्ढड़यंत्र के ताने-बाने बुनने लगा था । महाजन संतदास के आदमी पहले के झूठे कर्जे का हवाला देकर सुखे की फसल को लूटते हैं परन्तु यायावर सर्वषक्तिमान नायक बन कर उपस्थित हो जाता है और सबको मार भगाता है । महाजन के मन में इस घटना से प्रतिषोध का ज्वार बढ जाता है । अपने वजूद को बचाये रखने के लिए वह नए ड्ढड़यंत्र की रचना में लीन हो जाता है । एक रात को अचानक खेत-खलिहानों में आग लग जाती है । किसानों की फसल जल कर राख हो जाती है । गांव दुखी था । यायावर दुखी था । पता नहीं कहां से लेकिन चार गाड़े अनाज अजनबी बाबू सबके लिए लाया । उधर झमिया के मन में महाजन के प्रति प्रतिषोध की ज्वाला आकार लेने लगती है और इसी के चलते वह एक रात महाजन के महल में आग लगा देता है । पुलिस आती है, कार्यवाही होती है परन्तु अपराधी का पता नहीं चलता । कथा आगे बढती है । महाजन संतदास, इंस्पेक्टर नेमीचरण, मुंषी हेमा और आका कालीचरण की कारगुजारियों का पर्दाफाष होता है । गांव की महिलाएं धन्नी के नेतृत्व में एक झण्डे तले संगठित होकर विरोध का स्वर मुखरित करती है । सभी अपराधी जेल की काल कोठरी में डाल दिए जाते हैं । कथा के बीच में औसर, रिष्वतखोरी, राजनैतिक संरक्षणवाद और प्रेम प्रसंग के माध्यम से सरसता और विस्तार का सूत्र बुना गया है । अंत में पता चलता है कि यायावर मानवाधिकार आयोग का अभिकर्ता श्रीकांत है । सार रूप में किसान अंत भला तो सब भला के सूत्र वाक्य के दृष्टिगत सुकून की सांस लेते हैं और अपने भीतर की आग को बुझने न देने का संकल्प लेते हैं और पेमा काका इंसपेक्टर रजनी को श्रीकांत उर्फ यायावर से यादी करने की सलाह देता है जिसे सुन कर वह ्यर्मा जाती है । भाग अ-2 प्रस्तावना के इस भाग में हम बात करेंगे कथ्य के सामान्य विष्लेड्ढण के संदर्भ में । इस हेतु सबसे पहले विचार करते हैं उपन्यास के कथाबंध पर । कथाबंध कथ्य के परिचय के बाद जब हम कथाबंध को देखते हैं तो दिली सुकून मिलता है । कथाबंध का यह अनुभव ठीक वैसा ही सुख देता है जैसा कि किसी पैदल यात्री को चिलचिलाती धूप में प्यास से छटपटा कर पपड़ी जमते होठों को अनायास मिले किसी जल-स्त्रोत को देख कर मिलता है । दर्षन का एक भरा-पूरा विराट संसार उपन्यास में ्यामिल करने की उपन्यासकार की चाही-अनचाही तमाम कोषिषों के बावजूद कथाबंध की सरसता पाठक को बांधे रखने में सक्षम व समर्थ है । यह सक्षमता कथाबंध के स्तर पर उपन्यासकार के प्रयास को उपयुक्त ठहराती है । भाशा ‘यायावर’ की भाड्ढा नागिन सदृष है । कभी फुफकारती है तो कभी बल खाती, अंगड़ाती है । कभी आह्वान करती है तो कभी कचोटती-झकझोरती है । कभी रोती है तो कभी चिंघाड़ती है । कभी मारती है तो कभी पुचकारती है । कभी काटती है तो कभी मरहम लगाती है । कभी नाचती है तो कभी नचाती है । भाव यह है कि उपन्यास का भाड्ढा पक्ष कुछ एक अपवादों को छोड़ कर बेजोड़ है । पत्र की अपनी सीमाओं के बावजूद मैं कुछ भाड्ढाई कतरनें आपसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं- - कर्ज, भूख और बीमारी गरीब के लिए त्रिदोड्ढ है । यह त्रिदोड्ढ मृत्यु के साथ ही समाप्त होता है किन्तु जब तक देह है, मानवीय पीड़ाओं से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकते । गरीब के लिए मृत्यु ही उसका अपवर्ग है । - संध्या की पूजा में अतिव्यस्त महाजन आज की दिन-भर की लूट को परमात्मा के समक्ष जायज करने में लगा है । परमात्मा भी पता नहीं क्यों महाजन की कुटिलताओं से घिर गया है । नितराम लूटने की नूतन विधाओं का रास्ता दिखाता है । - लगता है भिखमंगों ने भी भूख के सिद्धांतों की पृथक से कोई पुस्तक लिख डाली है । - महाजन का अहाता किसानों के स्वेद और श्रम का मजाक उड़ाने का आदिम स्थल है । - ऐसा लग रहा था मानो सभी बुद्धिजीवियों के पेट में आत्मष्लाघा के मरोड़े चल रहे हों । - लगता है आसमान और महाजन के बीच कोई गुप्त समझौता है । - गरीब की विचारधारा का कोई साहित्य नहीं होता, वह तो सदैव अमुद्रित ही रहता है । गरीब के मन की पांडुलिपियां यूं ही कूड़ेदान में पड़ी रहती है । ्यायद इन्हीं अमुद्रित पांडुलिपियों को डाॅ. यादव ने पुस्तकाकार रूप् में प्रस्तुत कर अपने मन के संकल्प को अभिव्यक्ति दी है । प्रभावसत्ता हर रचनाकार अपने देष-वेष-परिवेष या साथी-दुष्मन या घर-परिवार या मित्र लेखक रचनाकार से किसी न किसी रूप् में प्रभावित अवष्य होता है । इस प्रभावसत्ता का अनुपात कम या अधिक हो सकता है । ‘यायावर’ के उपन्यासकार डाॅ. मनमोहनसिंह यादव को जब हम इस मायने में कूंतते हैं तो कई सारे चरित्रों की छाया-प्रतिछाया, असर या प्रभाव से हम साक्षात होते हैं । उपन्यासकार कभी हमें केन्द्रीय साहित्य अकादमी से पुरस्कृत असमिया उपन्यास ‘अघरी आतमार काहिनी’ से प्रभावित दिखते हैं, जिसका बाद में ‘यायावर’ ्यीड्र्ढक से श्री सत्यदेव प्रसाद ने हिन्दी अनुवाद भी किया, तो कभी गोदान के होरी व झमिया से अनुराग रखते लगते हैं । कथ्य-कथानक और रचना-प्रक्रिया के स्तर पर कहीं उपन्यासकार श्री अन्नाराम सुदामा के ‘मेवै रा रूंख’ और ‘डंकीजता मानवी’ के पात्रों के प्रति श्री यादव का मोह प्रतिबिम्बित होता है तो सनसनीखेज व सर्व ्यक्तिमान पात्रों की रचना करने वाले देवकीनन्दन खत्री की याद भी वे ताजा कर देते हैं । प्रसंगवष दूरदर्षन से प्रसारित ्यक्तिमान धारावाहिक का ्यक्तिमान भी हमारे स्मृति-पटल पर यायावर के रूप में दस्तक देता है । महाभारत काल के कृष्ण-सुदामा चरित्र भी हमें यत्र-तत्र देखने को मिलते हैं । इतने सारे चरित्रों की छाया या प्रभाव से हुए असर को सकारात्मक रूप में हम समग्रता की दृष्टि से देख सकते हैं तो आलोचकीय आंख से मौलिकता का अभाव भी कह सकते हैं । प्रस्तुतिकरण आज के अधिसंख्य हिन्दी उपन्यासों का आरंभ व्यक्ति जीवन की किसी घटना या प्रसंग से होता है । ‘यायावर’ का आरंभ लुखी और सुखा के वार्तालाप से होता है । न देषकाल का वर्णन है, न पात्रों का अन्तर्बाह्य रूपांकन ही है । वार्तालाप से ही हमें समय का ज्ञान होता है । इसी से पात्रों के वैयक्तिक, सामाजिक व आर्थिक स्तर का पता चलता है । इस ज्ञान से अभावग्रस्त जीवन-झांकी की रेखा बन कर उभरती है । यह वार्ता वक्त की सुईयों के संग तेजी से निकल जाना चाहते आसाढ की संध्या को उपस्थित करती है । सुबह की भूख की चिंता और इन्द्रदेव की नाराजगी वार्ता में जाहिर होती है । पारिवारिक जीवन का यह चित्र ्यीघ्र ही गांव की सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तित हो जाता है । हमारे सम्मुख गांव के जीवन का नियंत्रण करने वाली सामंतवादी व्यवस्था का रंग खुलने लगता है । सत्ता, धन, भूमि व सम्पदा के आधार पर मनुष्य और मनुष्य के बीच स्वामी-सेवक, ्यासक- ्यासित का स्नेहहीन सम्बन्ध बना हुआ है । किसान यदि जिंदा है तो जमींदार की कृपा के कारण । उपन्यासकार का यह कथ्य संकेत अंदाज ही उसे अन्य रचनाकारों से अलग खड़ा कर नए पाठकीय विमर्ष की मांग करता है । विषेड्ढ समस्या का विषेड्ढ ढंग से चित्रण करके कई उपन्यासकार सफल हो चुके हैं परन्तु निर्विषेेड्ढ रूप से भारत की सामान्य जनता का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने के लिए यायावर को याद रखा जाएगा । उद्देष्य निरूपण ‘यायावर’ में भारत के कृड्ढक समाज, महाजनी सभ्यता, जमींदारों का दुव्र्यवहार, असहाय ग्रामीण जनता, सरकारी कारिंदों का प्रामाणिक चित्र हमें प्राप्त होता है । सामाजिक समरसता और सदाचार का उपस्थापन उसका मूल मकसद है । यहां मैं विवेकानंद के वक्तव्य का संदर्भ लेना चाहूंगा -‘सतत् अत्याचार से बेचारे दरिद्र लोग धीरे-धीरे यह भी भूल गये कि वे मनुष्य हैं । ्यत- ्यत सदियों से उन्होंने बाध्य होकर कीर्तदास की तरह केवल पानी भरा है और लकड़ी काटी है । उन्हें ऐसा विष्वास करने के लिए ही उनका जन्म है, पानी पिलाने तथा बोझा ढोने के लिए ही वे पैदा हुए हैं ।’ यह जीवंत दर्षन रचना हर किसी के वष में या सामथ्र्य में नहीं होता । यह कार्य बेहद चुनौतीपूर्ण है और चुनौतियों को स्वीकारने वाले ही महान होते हैं । अज्ञेय के मतानुसार ‘जिस लेखक के बारे में हम यह कह सकें कि उसने हमें जो सत्य दिया वह न केवल हमारे व्यापकतम अनुभव क्षेत्र का है बल्कि इसने हमें न दिखाया होता तो यह अनदेखा रह जाता ।’ सार रूप में यही कह सकते हैं कि सम्भावनाओं की जमीन पर उम्मीदों के बिरवे बोकर आषाओं के फल लगाने की कुव्वत रखने वाले सृजनधर्मी ही लोक हित और लोक कल्याण के महायज्ञ में आहूति दे सकते है । डाॅ. यादव ने एक गंभीर और षिद्दत-भरा आहूति प्रयास किया है। अब हम चलते हैं इस प्रतिवेदन के अहम भाग यानि भाग ब की तरफ जो कि किसी भी प्रतिवेदन की आत्मा होता है और जिस संस्था से जुड़ा प्रतिवेदन होता है, उसके कार्मिक सबसे पहले इसी भाग को देखते-पढते और समझते हैं क्योंकि उन्हें इस भाग का प्रत्युत्तर या अनुपालना प्रस्तुत करनी पड़ती है । प्रस्तुत है खण्ड -‘ब’ यायावर की संपूर्ण यायावरी से मुखातिब होने के बाद कुछ आपत्तियां, असहमतियां, आक्षेप या जिज्ञासा रूपी सवाल पाठक के मन में सहज भाव से उठते हैं । ऐसी ही कुछ परिस्थितियों की विगत इस प्रकार है - 1. कथावस्तु के अनुसार सूखे की पत्नी लुखी एक अपढ महिला है । बावजूद इसके उपन्यासकार उसके मुंह से ज्ञान व दर्षन एक विराट संसार मुखरित करवाता है । एक अपढ पात्र का यह ज्ञान निदर्षन पाठक के गले नहीं उतरता । 2. पारिभाड्ढिक रूप से यायावर का कोई स्थाई पता-ठिकाना नहीं होता लेकिन इस कथा क्रम में अमिया काकी का घर उसका रहवास है । आस-पास के गांव में घूमने के अलावा उसकी यायावरी भी प्रदर्षित नहीं होती है । ऐसे में वह यायावर कैसे हो सकता है ? 3. जिस व्यक्ति के बारे में कोई सार्वजनिक जानकारी न हो उसे कोई अपने घर में सदस्य की तरह रख ले, यह सम्भव प्रतीत नहीं होता । 4. एक चमत्कारिक सर्व ्यक्तिमान पात्र अजनबी बाबू कथा को आगे बढाता है परन्तु अकेले ही बिना किसी अस्त्र-षस्त्र के कई लोगों को एक साथ मार भगाना पाठक के गले नहीं उतरता । एक तरफ नगा यथार्थ रचा गया है तो दूसरी तरफ एक बेहद काल्पनिक चरित्र । यह विरोधाभास कथा के जमीनी जुड़ाव को कमजोर करता है । 5. यायावर धान के चार गाड़े गांव वालों के लिए लाया । सुखे को बैल दे दिया । कर्ज चुकाने के लिए पैसे भी दिए । परन्तु यह सब कुछ वह कहां से लाया या इनका स्त्रोत क्या रहा, अंत तक खुलासा नहीं होता है । 6. झमिया सेठ के कुए में लहुलुहान पाया जाता है । उसे लहुलुहान किसने किया । वह चैटिल कैसे हुआ ? यह सवाल पाठक को विचलित करता है परन्तु अनुत्तरित रहता है । 7. पहचान कार्ड के मुताबिक श्रीकांत उर्फ यायावर पूरे देष में जुल्म के खिलाफ कार्य करने के लिए अधिकृत है । अनाचार के खिलाफ लड़ाई के लिए अधिकृति की आवष्यकता या जरूरत कब से होने लगी ? इनके अलावा भी कई प्रसंग है जिनमें चर्चा व बहस की गुंजायष है । इन जिज्ञासाओं और असहमतियों के बावजूद ‘यायावर’ की अनन्यता का प्रमुख कारण इस उपन्यास में भारतीय जीवन का व्यापकतम प्रतिनिधित्व और जनजीवन का अत्यन्त आलिप्त चित्रण है । प्रतिवेदन के निष्कड्र्ढ रूप में मैं यायावर के इस उद्घोड्ढ को रखना चाहूंगा - ‘ज्ञान के महापंडितों ! जरा जमीन पर उड़ने की कोषिष मत करो, जमीन की सच्चाई का खयाल करो । तुम्हारे ्यब्दों के ्यतरंज ने ही नैतिक मूल्यों को पुस्तकों के अजायबघर में रख दिया है । कागज में सत्य खोजने वालों, जरा लालटेन लेकर उस तंग बस्ती को देखो, जहां एक गरीब सिसकी और सुबकी में डूबा हुआ भी अपने ईमान की रक्षा कर रहा है, जरा रोको उस कुलीन को जो अपनी आरामगाह में बैठा मूल्यों का मीनाबाजार लगा रहा है । तुम भी वही कर रहे हो जो कुलीन कर रहा है । वह बाजार लगा रहा है और तुम ग्राहक पैदा कर रहे हो !’ अब समय की इस नीयति को बदलना लाजमी हो गया है । वरना हम सिर्फ एक वस्तु या ग्राहक के रूप में रह जायेंगे और एक नया सांस्कृतिक खतरा हमारे वजूद को लील जाएगा । निर्णय आपके हाथ है । 00

सोमवार, 9 नवंबर 2009



राजस्थानी लघुकथा 


बदळाव 

 धंधै रै धकै घणौ बारै रह्यां पछै गांव बावड़्यो हो वीरू । सात बरस पैली रो मासूम अर लांप काया रो धणी वीरू अबै गौरो-चिट्टो नै जोध-जुवान मोट्यार बण आयो हो । वीरू नैं लखायो कै सात बरसां में बो बालपणैं री निसरणी रै पगोथियां चढतो जवानी सूं आय मिल्यो पण उण रो कस्बो मदनपुर आज ई उमर रै उणियारै थाकल गैलायत दांई वठै रो वठै थिर ऊभौ बिसांयी ले रैयो है । कठैई कोई मोटो बदळाव वीरू री निजरां नीं पड़्यो । कस्बै री रंगत आंख्यां भरतो घूमतो-फिरतो बो आथूणैं गोरवैं बणियोड़ी बगीची आय ढूक्यो अर रूंखां रै परलै पासै बण्यै गट्टै माथै बैठ सुस्तावै लाग्यो । सांस बावड़्यां दूजी कानीं निजर पड़ी तो उण नैं घणौ अचूंभो हुयो । दो दिनां सूं ताई नैं ढूंढ-ढूंढ आखतो हुयो, बा तो अठै बिराजै ही । बतळावण री मनगत तैवड़ वीरू उठ खड़्यो हुयो । पण पछै आ विचार कै देखां ताई ओळखै कै नीं, बो चुपचाप वठै जाय ऊभ्यौ । ताई रै पाखती ढूंढ घाल्यां बैठी दोनूं छोरियां नैं वीरू देखतां ई ओळख ली । जब्बर जुलमी जाड़ै में ई ताई खुद नैं लीर-लीर ओढणियै में पळेट्यां अणछक धूजै ही । ताई रा अै हाल-हवाल देख वीरू नैं रोवणो आयग्यो । वीरू नैं बाळपणैं रो बो दिन याद हुय आयो जद आ ई ताई बास री अेक छोरी सूं छेड़खानी देख पटवारी रै बिगड़ैल छोरै नैं जूती सूं छेत-छेत जोजरो नै सुन्नौ कर दियो अर जद तांई बो छोरी रै सिर माथै हाथ फेर बीं नै बहन नीं बणाई तद तांई लारो नीं छोड़्यो । वीरू मन ई मन पगैलागणा कर्या अर पछै गूंजै सूं थोड़ा रिपिया काढ ताई कानीं कर दिया । ‘....लै ताई......! गरम काम्बळ लै लैई ।’ ताई नोटां नैं उळट-पळट अचरज सूं देखती रैयी जाणैं अविस्वास सूं परखती हुवै कै असली तो है नीं...? बा उण री निजर उतारण लागी । वीरू सोच्यो कै स्यात ताई पिछाण लियो । ‘कुण सी छोरी भेजूं बाबू.........? पत्तो-ठिकाणो.............?’ ताई रा अै बोल तपियोड़ै तेल दांई वीरू रै कानां में खदबदाहट करता उतर्या । अपणायत रो ओ मायनो उण नैं घणौ अजोगता लखायो । वीरू निजर उठाई तो लाग्यो जाणै समूचो कस्बो अेकाअेक बदळग्यो हुवै । Û  



बिमारी


आठ-दस बरस री उमर । लूखा झींट, काटिजियोड़ा होठ, मळैवण जम जाडी पड़ती जीभ, सूरत सूं लागै जाणै दाई रै नुहायां पछै कदै मुहरत नीं निकळ्यो । आंकी-बांकी चालती छोरी पेट रो खाडो दिखा-दिखा सोनलियै मुंहडै-सो बिणाव अर लाखीणी उमर सारू आगूंच आसीसां री थड़ियां बांधती रिपियो-आठानी मांगती रैयी । ‘ओ गोरै मुंहडै वाळा बाबू ! देवै नीं रै अेक रिपियो गरीबणी नैं...........गरीब री काया पोख.....थारी भगवान पोखसी । थारै रूपाळी बिनणी आवै......!’ ‘...अै बाई............ सुणै नीं अे सेठाणी...... गरीबणी नैं अेक रिपियो दै.......... दो दिनां री भूखी री आत्मा आसीस दैसी.............. रामजी थारो सुहाग अमर राखै अे सेठाणी !’ ‘...... अै रूपाळी........... दै अे बाई ........... रामजी थारी गोद भरै............ थारै बेटो हुवै............ गरीब री मदद कर अे बाई.........!’ टासीसां रा अणछक डीगा डूंगर मांडिया पण सगळा जातरी मुंह बिचका’र आगै चाल, दूर हट कह’र टरका दी कै आंख दिखा दी । नैनी रोमी नैं घणी दया आई पण पापा उण रै कह्यै री गिनार नीं करी अर बात आई-गई कर दी । ब्याव रै घरां रोमी रा घणाई लाड-कोड हुया पण बा अणमणी ई रैयी । पापा ब्याव रै झमेलां मांय उळझ्या रैया । दो दिन तांई रोमी मुंह रै अन्न नीं लगायो जिण सूं मांदी पड़गी । पापा तो कीं नीं दुखै, रो कैय’र बात टाळ दी । ब्याव सूं पाछा घरां आयां पछै ई रोमी री तबियत में कोई सुधार नीं हुयो । पापा घणै कोड सूं उण वास्तै दूध-खिचड़ी ल्याया पण बा नीं खाई । घणी मनाई अर तकलीफ पूछी तद रोमी रोंवती सी’क बोली- ’पापा......! बा छोरी बापड़ी कांई खायो हुवैला.......? बीं नै तो कोई कीं ई नीं दियो.............!’ Û


रविवार, 8 नवंबर 2009

अरथ मिनख रो किण नैं बूझै


जीव झबळकै, मनङो जूझै 
लोक लाज तद किण विध सूझै

जीव पेट नैं
घणौ भुळायो
भूखै मन नै
घणो जुळायो,
कद लग राखै
आंकस भूख 
पेट मिनख नैं
घणो घुळायो । 


पेट कसाई पापी हुयग्यो
जात-धरम रो जीव अमूझै


रोटी सट्टै
इज्जत बिकगी
रोटी खातर
आ्रंख्यां सिकगी,
काण-कायदा
छूट्या सगळा 
बैमाता कै लेख लिखगी ? 


जीव जगत रो बैरी हुयग्यो
कामधेनु तद किण विध दूझै


मन मंगळ रो 
सरब रूखाळो
भूख-चाकी तो 
मांगै गाळो,
पंचायतिया
करै न्याव जद
क्यूं नीं ले लै
पेट अटाळो

हेवा हुयग्यो जीव दमन रो
अरथ मिनख रो किण नैं बूझै ?




राजस्थानी कविता
 
सौनचिड़ी 

सौन चिङकली
क्यूं थूं गुमसुम
क्यों जीव तङफावै,
मन री कह दै
हळकी हुयज्या
क्यूं जूण रळकावै ? 
पग-पग छेङै
बैठ्या बैरी
स्यान कचोवैला थारी,
लोक लाज री चूंदङी में
पछै नीं लागै कारी । 
मादा नांव सुणीज्यो चाहीजै
काटक गिरझ पङै घणां,
भाव-भावना खङ्या बिसूरै 
मनगत रोवै झरां-झरां....... । 
आं तिलां में तेल कोनी
दुख घणी थू पावैली,
आज थूं राणी
काल रांड बण 
आखी उतर कुरळावैली ।  
आ जूण
गळैङी कांबळ
ठा नीं कित्ता सळ पङै,
बिल-बाम्ब्यां सूं सुळ्यौ जमारो
ठा नीं कुण कद छळ बङै ? 
मान बावळी थूं सुखी है
खुलै आभै उरळावै,
जीवत जाळोटां री बस्ती
मिनख चींत गरळावै ।

कुछ अपने बारे में जन्म 05 जून 1968, श्रीडूंगरगढ महर्षि दयानन्द सरस्वती विश्व विद्यालय, अजमेर से वर्ष 1989 में वाणिज्य स्नात्तक की डिग्री परीक्षा उत्तीर्ण, तत्पष्चात 1991 में हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर डिग्री । 
शोध/सर्वे मरूभूमि शोध संस्थान, श्रीडूंगरगढ में वर्ष 1989 से 1991 तक 3 वर्ष मानद शोध सहायक । ‘चूरू अंचल रा लोक देवता अर लोक मान्यतावां’ विषय पर शोध कार्य चालू । साक्षरता के क्षेत्र में सरकारी और गैर सरकारी प्रयास: दशा और दिशा। शिक्षा, समाज और चेतना में शैक्षिक परियोजना की भूमिका ।  
सदस्यता राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर की सरस्वती सभा के सदस्य ( वर्ष 2006 से 2008 तक)। ISBN में पंजीबद्ध रचनाकार । राष्टभाषा हिन्दी प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ के आजीवन सदस्य । वर्तमान में संयुक्त मंत्री । राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ । सार्वजनिक पुस्तकालय, श्रीडूंगरगढ की आजीवन सदस्यता और प्रबंध समिति के पूर्व सदस्य । सत्संग समिति, श्रीडूंगरगढ के संस्थापक मंत्री । राजस्थान अधीनस्थ लेखा सेवा संघ की सक्रीय सदस्यता । 1996 से 1999 तक बाड़मेर जिले का मंत्री पद भार । 1989 से 1994 तक महिला और बाल विकास विभाग, अराजपत्रित कर्मचारी संघ की चूरू जिला इकाई और बीकानेर संभाग का क्षेत्रीय मंत्री पद भार । 
लेखन प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकावों में कहानी, कविता, व्यंग्य, निबंध, आलोचना, लघुकथा, फीचर आलेख आदि का 1986 सें लगातार प्रकाषन । आकाशवाणी के बीकानेर, चूरू, जोधपुर, जयपुर और बाड़मेर केन्द्रों से प्रचुर रचनावों का प्रसारण । दूरदर्शन के कई चैनलों सें भी प्रसारण । कई सम्पादित संकलनोंां में रचनाएं संकलित ।  
प्रकाशन
1. चमगूंगो (आधुनिक राजस्थानी कविता संग्रह) 1991 2. हासियो तोड़ता सबद (आधुनिक राजस्थानी कविता संग्रह ) 1996 3. एक और घोंसला (हिन्दी कहाणी संग्रह ) 1997 4. सपने का सुख (हिन्दी व्यंग्य निबंध संग्रह) 2006 5. तिरंगो (राजस्थानी बाल कविता संग्रह ) 2006 6. सेना के सूबेदार (हिन्दी कविता संग्रह ) 2006 सम्पादन ‘यादां रै आंगणियै ऊभा उणियारा’ (राजस्थानी रेखाचित्र संग्रह )। ‘राजस्थली’ (लोक चेतना की राजस्थानी तिमाही का पिछले 12 वर्षो से प्रबंध सम्पादन)। ‘हस्तक्षेप’ (साहित्यिक फोल्डर के चार अंकों का सम्पादन)। मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार, संस्कृति विभाग-भारत सरकार, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर, राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर, जवाहर कला केन्द्र, जयपुर, संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर आदि प्रतिष्ठित एजेंसियों द्वारा आयोजित-प्रायोजित राष्ट्रीय, राज्य स्तरीय और आंचलिक समारोहो का संचालन । राजस्थान शिक्षाकर्मी बोर्ड का अनौपचारिक शिक्षा अनुदेशक आवासीय प्रशिक्षण शिविर का व्यवस्थापन । 
पुरस्कार और सम्मान राजस्थान सरकार द्वारां उत्कृष्ट साहित्य लेखन के लिए राज्य स्तरीय पुरस्कार 15 अगस्त 2008 (दस हजार रुपये और सम्मानपत्र )। राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर का ‘भगवान अटलानी युवा लेखन पुरस्कार’ 2008 (15 हजार रुपये और सम्मानपत्र ) ।
नगर विकास न्यास,बीकानेर का ‘मैथिलीशरणगुप्त युवा लेखन सम्मान’ ;2007(ग्यारह सौ रुपये और सम्मानपत्र ) । राव बीकाजी संस्थान, बीकानेर द्वारा ‘पंडित विद्याधर शास्त्री अवार्ड’ ;2008 त्रिलोक शर्मा स्मृति संस्थान, श्रीडूंगरगढ द्वारा ‘संवाद सम्मान’ ;2008 लायन्स क्लब इन्टरनेशनल का‘साहित्य शिरोमणी सम्मान’ ;2008 ज्ञान फाउण्डेशन, बीकानेर का ‘ज्ञान श्री सम्मान’ ;2008 स्व.श्री सीताराम राजपुरोहित स्मृति संस्थान, बीकानेर द्वारा ‘राजपुरोहित गौरव सम्मान’ 2009 युवा लेखक संघ, बाड़मेर द्वारा ‘साहित्य मनीषी सम्मान’ ;1998 चिकित्सा और स्वास्थ्य विभाग द्वारा ‘युवा शक्ति सम्मान’ ;1998 मध्यप्रदेश युवा रचनाकार परिषद का ‘युवा कवि सम्मान’ ;1994 सहस्त्राब्दी हिन्दी सेवी सम्मान ;2001 युवा कवि अवार्ड ;1992 गुजरात युवा लेखक संघ सम्मान ;1995 राजपुरोहित युवा मंच सम्मान ;1994 उमराणी प्रकाशन, निम्बोळ का ‘साहित्य साधक सम्मान’ । पेंशनर्स कल्याण के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाओं के लिए उपखण्ड प्रशासन, श्रीडूंगरगढ द्वारा स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर सार्वजनिक सम्मान । कई पत्र-पत्रिकावांे और संस्थावांे द्वारा आयोजित कथा, कहानी और कविता प्रतियोगिताओं में रचनाएं पुरस्कृत ।  
पत्रकारिता दैनिक नवज्योति, दैनिक युगपक्ष, नवभारत टाइम्स-जयपुर, दैनिक राष्ट्रदूत, लोकमत, दैनिक भास्कर, दैनिक हिन्दुस्तान-दिल्ली सहित कई प्रतिष्ठित पत्रों के लिए मानद संवाद प्रेषण का कार्य । 
सम्प्रति राजस्थान सरकार की अधीनस्थ लेखा सेवा में कार्यरत । 
सम्पर्क
ravipurohit4u@gmail.com

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009


उतरूं ऊंडै काळजै
उतरूं थांरै
 ऊंडै काळजै
मारूं चुभ्यां
 ढूंढूं
छिब म्हारी
थिर मन-जळ में ।
जित्तौ उतरूं
बित्तौ बैठूं
गहरै तळ-अतळ
दाझूं
इण री कळ-झळ में
 मन सांभळूं
 चींत चितारूं
देखूं-निरखूं
 हियै विचारूं
 कठै पज्यौ मनमौजी भंवरो
 इण छळ-बळ में ।
झींझ बाजै चित्त आंगणियै
होठां घूघरा नाचै
 अबै प्रगटसी,
बांथां भरसी
 थूं मन जळ-निरमळ में
भूल्यौ म्हैं भावां री लहरां
 करतो रैयो किलोळ
 मुगती री मनगत रै धकै
उळझ्यौ इण सळ-दळ में ।
चाहै उळझूं,
चाहै सुळझूं
जाणूं निस्चै मिळसी थूं
धुन है पक्की,
 मत्तौ पक्को
 हुयस्यां दो सूं अेक
 इणी जग-कुळ में
 उतरूं
 थांरै ऊंडै काळजै
 मारूं चुभ्यां
 ढूंढूं छिब थांरी
 थांरी यादां रै जंगळ में  । ۞

 कुण जाणै किण मौत मरां ?  
चैतरफी
 मुरङाण हवा में
 छेवट कद लग मौन धरां ?
समझायो धमकायो मन नैं
 घणौ सांवट्यो घायल तन नैं,
 दूजां री लेलङ्यां में ई
 बिरथ गमायो म्हैं जीवन नैं ।
 जीवन रो जद
जीव कळीजै
 किण विध जीवन मान करां ?
 भूख करावै पाप घणां
बिण विध जीवन राग भणां,
रातङली कट ज्यावै आंख्यां
 सुख थोङा अर दुख घणां ।
धमाचैकङी चमगूंगां री
 कुण जाणै किण मौत मरां ?
 आंधा आखर
 मेळ-जोळ रा
 सबद अणमणां बंतळ-बोळ रा,
मांदो जीवन
जीव गळगळा
 रंगरूट
 घणां मोळ-खोळ रा ।
राज
हवा में डांगां रो
सपनैं कियां उङान भरां ?

  ۞
अरथ मिनख रो किण नैं बूझै
 जीव झबळकै,
 मनङो जूझै
 लोक लाज 
तद किण विध सूझै
 जीव पेट नैं घणौ भुळायो 
भूखै मन नै घणो जुळायो,
 कद लग राखै आंकस भूख
 पेट मिनख नैं घणो घुळायो । 
पेट कसाई पापी हुयग्यो 
जात-धरम रो जीव अमूझै
 रोटी सट्टै इज्जत बिकगी
 रोटी खातर आ्रंख्यां सिकगी, 
काण-कायदा छूट्या सगळा 
बैमाता कै लेख लिखगी ? 
जीव जगत रो बैरी हुयग्यो 
कामधेनु तद किण विध दूझै
 मन मंगळ रो सरब रूखाळो 
भूख-चाकी तो मांगै गाळो,
 पंचायतिया करै न्याव जद 
क्यूं नीं ले लै पेट अटाळो
 हेवा हुयग्यो जीव दमन रो
 अरथ मिनख रो किण नैं बूझै  ? ۞ 

 मनगत रै कैनवास माथै
आ रे साथी
थनैं दिखाऊं
 मनगत रो संसार,
जूण-जूझ सूं कळकळीजती
 जिंदगाणी रो सार !
घालमेल जीवन रंगां में
 धोळा मांडूं काळा दिखै,
 हेत-नेह रै मारग बगतां
पग-पग मिनखपणौ अबै बिकै ।
 अरथ लीलग्यो अपणायत नैं
रिस्ता जाणैं हुयो बौपार
मुंहडै आगै हेताळु जग
 मांय-मांय ई जङ बाढै
लारै भूंड-चाळीसा बांचै
 सैंमुहडै बत्तीसी काढै ।
जीवन रंग अजब है साथी
 घणोै तङफावै मांयली मार !
अपणायत री कोमळ धरती
बीज आम रो बोऊं,
तळतळीजूं नफरत लपटां
भळै कोई नैं खोऊं
लोक रै अखबारां बिरवो
 आकङो बण ज्यावै,
साथी म्हारा बखत देख थूं
 कूङ साच नैं खावै !
 किण नैं देऊं दोस बैलीङा
जीवन अपरम्पार,
जूण जूझ सूं कळकळीजती
 जिंदगाणी रो सार । ۞



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