मंगलवार, 17 नवंबर 2009

आंखें

आंखें : परिणति


आंखें
पहचानती है अब
समय की
धड़कन,

देखती है
लौकिक अटकलें,
टपकाती है
सिर्फ़
सिंदूरी खून......

आंसू
सूख जो गये हैं
व्यवस्थाओं के वशीभूत !
***


आंखें : अनुभव

आंखें
नहीं देखती अब
सांसारिक भरत-मिलाप,

घूरती है-
उजड़ती मांगों को/
महसूसती है
बेतुके
बारूदी सुरों को....

अभ्यस्त जो हो गई है !
***

आंखें : परिदृश्य

आंखें
नहीं ताकती अब
 वर्षा,
 तलाशती है
 योजनायें,
 खोजती है-
 दफ़्तरिया फ़ाइलें,
 निहारती है-
 फ़ैमिन

कुआ-निर्माण
और कर्ज मुक्ति के
 गुर,
बाबुओं की जेब में !

तजुर्बा जो ठहरा
साल-दर-साल का !
***

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जगजाहिर