चेहरों के बाजार में
चेहरों से
पूता चेहरा
रिमोट रूपया राम ,
लोक हाट के
हाथ है रंगत
भज लो उसका नाम !
मान चालीसा
तुलसी रचता
छुटभैये आँख दिखाते,
तानसेन है
मौन कौने में
ऐरे-गिरे गाते
थार की मझधार
दिखाते
समदर का विस्राम ...
कालगर्ल
अब रंग जमाती
`मांड` हुआ बेनूर,
पौधे तरसे
पानी को अब
गुलदस्ते भरपूर
मूल्यों के
दाता टकराते
अब राजनीति के जाम ...
शेर-बकरियां
एक घाट अब
पदासीन नाटक,
भक्सक ही
रक्सक बन बैठा
ढूंढो चेहरों का चातक
भरो पहेली
कैसे आये
चेहरों को आराम...!
कबूतर-सी मठौठ, हिरणी-सी चपलता, खरगोश की कूद-सा संवेदन, मुर्गे-सी जाग, भोर-सा मतवालापन, चिड़िया-सी चहक, कोयल-सी कुहुक, कौए-सी कर्कशता, उल्लू-सी मांगलिकता, बटेर-सी उड़ान, की तरह साधूं शब्द को, रचूं जीवन को, महकाऊं वक्त को, सरसाऊं सामाजिक सरोकारों को। काश ! ऐसा कुछ सिरज सकूं, यही चाहत है ।
बुधवार, 28 अक्तूबर 2009
मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009
kavita
कब निहारे
रूप गौरी का
कब बोले
दो मीठे बोल,
फुर्सत नहीं
फसल से उसको
स्वप्न-द्रस्ति
मौन अबोल !
आँखों में
बसता केवल
फसल का
पसराव, शादी-न्यौता
पक्की साल
चक्षु-मार्ग
यही बिखराव !
गौरी चाहे
प्रियतम का संग
आँखें उसकी कहती सब कुछ
मुंह से कब बोले,
भरी जवानी
रूप-सौन्दर्य
दब गया फसल के नीचे
बंद दरवाजा कौन खोले !
कब उबरेगा
फसल स्वप्न से
सांई मेरा,
कब देखेगा
प्यार नजर से साँई मेरा !
रूप गौरी का
कब बोले
दो मीठे बोल,
फुर्सत नहीं
फसल से उसको
स्वप्न-द्रस्ति
मौन अबोल !
आँखों में
बसता केवल
फसल का
पसराव, शादी-न्यौता
पक्की साल
चक्षु-मार्ग
यही बिखराव !
गौरी चाहे
प्रियतम का संग
आँखें उसकी कहती सब कुछ
मुंह से कब बोले,
भरी जवानी
रूप-सौन्दर्य
दब गया फसल के नीचे
बंद दरवाजा कौन खोले !
कब उबरेगा
फसल स्वप्न से
सांई मेरा,
कब देखेगा
प्यार नजर से साँई मेरा !
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