मंगलवार, 17 नवंबर 2009

रधिया

रधिया

मर-मर कर
 जीने का
 उपक्रम करती है रधिया,
 तगारी के सम्बल से
 आठ जनों की भूख को
 आश्वस्त करती है
 वह !

बल पड़ती रीढ की मालकिन/
 शर्म-शाइस्तगी से
 सजाती रहती है
 गिट्टियां
 तरल कोलतार में
 मरणासन्न रधिया
 तन्मयता से !


संवेदनायें
 मर चुकी है सड़क की
 पर कोल्तार की भूख नहीं मिटी !

लाचारगी
 पसरी रहती है आस-पास,
 भूखहा अंधियारा
 गहराता रहता है
 आंखों के आगे..
गिरा देना चाहता है
 जड़-प्राय: रधिया को
 पर मैले-कुचैले नंग-धड़ंग बच्चे
 दारूखोर पति के हाथों पिटते
 और भूख से त्रस्त हो रिरियाते
 तैर जाते हैं
 चुंधियाते कोर्णियां में/
 थाम लेते हैं कलई

परिवार-कल्याण का मुद्दा
 लगा देता है उसे
 दूने उत्साह से
 तगारी उठाने में !

ठेकेदार
 ताकता रहता है टुकुर-टुकुर
 ठण्डे जिस्म की
 मैली पिण्डुलियों को
 और महसूसता रहता है
 इनकी आग !

रधिया
 अनजान बनी लगी रहती है
 धियाड़ी पकाने में

प्रतिरोध का हश्र
 मजुरी से हटना ही होगा
  वह जानती है
दुनियावी उसूल
इसिलिए मजदूरी के वक्त
 औरत नहीं होती
 सिर्फ़ मजदूरन होती है
 जमाने की रधिया !

***

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