बुधवार, 11 नवंबर 2009

यायावर की यायावरी: एक आडिटर की डायरी

पुस्तक चर्चा यायावर की यायावरी: एक आडिटर की डायरी ऽ कृति : यायावर (उपन्यास) लेखक : डा. मनमोहनसिंह यादव प्रकाषक : पुस्तक मंदिर, प्रथम तल्ला, जुबली नागरी भण्डार परिसर, स्टेषन रोड, बीकानेर (राजस्थान)-334001 संस्करण : 2009 मूल्य : 100 रुपये भाग अ: प्रस्तावना डा. मनमोहनसिंह यादव की सद्य प्रकाषित उपन्यास कृति ‘यायावर’ यहा विवेच्य विड्ढय है । कथ्य की दृष्टि से विचार करें तो इसमें कुछ भी नया नहीं है । हिम्मतपुर से जुड़े एक ठेठ गांवई गांव के वाषिंदे दम्पत्ति सुखा और लुक्खी से प्रारंभ होता है कथा का । गांव का मुख्य व्यवसाय भारत के अधिसंख्य ग्राम्यांचलों की तरह कृड्ढि है जो वड्र्ढा से जुड़ी है । काले घने मेघ आसमान में छाते हैं पर बरसते नहीं । बिन बरसे बादलों की रवानगी के चलते आभे से चिपकी भूखी आंखें बरस पड़ती है। ऐसी स्थितियों में सबके समक्ष पेट के गड्ढे को भरने की ्याष्वत समस्या सुरसा-सा मुंह -बाए उनके वजूद को लील जाने का आतुर दिखती है । इन्हीं परिस्थितियों से साक्षात करता सुखा और लुक्खी का परिवार आजीविका की संकट वार्ता में उलझा हुआ है । सुखा सिर्फ नाम का ही सुखा है वरना ्यायद उसने किसी सुख का आस्वाद नहीं किया । लुक्खी है सुख से लुक्खी । निर्बलों की कन्या राषि का ्यास्त्र पाप-पुण्य और पुनर्जन्म के लेखे लुक्खी को तारनहार दिखता है । बेचारी लुक्खी टूटते तारों में पूर्वजों को खोजती रहती है और संकटहरण करने हेतु दण्डवत आस्थावान बनी रहती है । तो दूसरी तरफ खत्म होता अनाज उन्हें परेषान करता है । सुबह क्या खायेंगे, का यक्ष प्रष्न जैसे उनकी नीयति है । गांवों का सुख-दुख महाजन से जुड़ा रहता है । यही सूक्त संदर्भ यायावर की कथा में देखने को मिलता है । सुक्खा लाचारगी और दीनता का पुतला बन महाजन संतदास की ्यरण में जाता है और स्वाभिमान को तार-तार कर आधा मण बाजरी उधार ले आता है । पूर्वजों की नजरें इनायत कहें या प्रकृति का सहज चक्र या गरीब की साधना, गांव में जम कर बारिस होती है । बारिस होते ही गांव की आंखों में नूर आ जाता है । सुखे के सामने अब संकट खड़ा होता है एक अदद बैल का । उसका खुद का बैल तो कब का भूख से आहत को मौत की गोद जा बैठा । अब हल जोते तो कैसे ? लुक्खी और सुखा दोनों ही इस संवेदन घमासान में उलझे हैं कि पास ही के गांव का अजनबी बाबू नागौरी बेल उसके खूंटे से बांध देता है । सुखा तो जैसे स्वर्ग में ही विचरने लगा । वह भगवान का आभार ज्ञापित करता है तो लुक्खी पूर्वजों का । सुखे के घर बैल बंधा होने की खबर एक के मुंह से दूसरे के कानों तक फिसलती महाजन संतदास के कान में भी पहुंची । ऐसे यदि सबके घर बैल बंधने लगे तो महाजन ने तो कर ली महाजनी । संतदास के भीतर बैठे महाजन ने करवट बदली और उधारी के बदले सुखे का बैल अपने खूंटे से बांध लिया । सुखे की सुख-कल्पनाएं धराषाई होने लगी । आंखों में अंधेरा उतर आया । अब कहां जाए । आखिर पति-पत्नी ने तय किया कि अजनबी बाबू से बात की जाए । इसी निष्चय के साथ सुखा रात के समय ही हमीरपुर में रहने वाली बूढी काकी के घर का लक्ष्य कर रवाना हो लिया । सुखे की किस्मत कहें या संयोग अजनबी बाबू वहीं मिल गया । सुखे ने अपना दुखड़ा रोया । अजनबी बाबू ने कहा कि महाजन के पाप का घड़ा भी भरेगा । उसने महाजन की उधारी के 200 रुपये सुखे को दे दिए और कहा कि पैसे चुका कर वह अपना बैल छुड़ा ले । आखिर सुखे ने बैल छुड़ा लिया और खेत जोतने में लग गया । मेहनत रंग दिखाती है - सुखे का खेत भी फसल से लहलहा उठा । इस फसल के साथ उसके कई सपने स्वतः जुड़ते चले गये । परन्तु ईष्वर को ्यायद कुछ और ही मंजूर था । इधर गांव का प्रतिनिधि किसान सुखा सुख-सागर में हिलोरे ले रहा था तो उधर महाजन संतदास अपने मुंषी हेमे की सलाह एवं सेठ कालीचरण के परिश्रय के बलबूते पर अपने वजूद को बनाये रखने के लिए नए ड्ढड़यंत्र के ताने-बाने बुनने लगा था । महाजन संतदास के आदमी पहले के झूठे कर्जे का हवाला देकर सुखे की फसल को लूटते हैं परन्तु यायावर सर्वषक्तिमान नायक बन कर उपस्थित हो जाता है और सबको मार भगाता है । महाजन के मन में इस घटना से प्रतिषोध का ज्वार बढ जाता है । अपने वजूद को बचाये रखने के लिए वह नए ड्ढड़यंत्र की रचना में लीन हो जाता है । एक रात को अचानक खेत-खलिहानों में आग लग जाती है । किसानों की फसल जल कर राख हो जाती है । गांव दुखी था । यायावर दुखी था । पता नहीं कहां से लेकिन चार गाड़े अनाज अजनबी बाबू सबके लिए लाया । उधर झमिया के मन में महाजन के प्रति प्रतिषोध की ज्वाला आकार लेने लगती है और इसी के चलते वह एक रात महाजन के महल में आग लगा देता है । पुलिस आती है, कार्यवाही होती है परन्तु अपराधी का पता नहीं चलता । कथा आगे बढती है । महाजन संतदास, इंस्पेक्टर नेमीचरण, मुंषी हेमा और आका कालीचरण की कारगुजारियों का पर्दाफाष होता है । गांव की महिलाएं धन्नी के नेतृत्व में एक झण्डे तले संगठित होकर विरोध का स्वर मुखरित करती है । सभी अपराधी जेल की काल कोठरी में डाल दिए जाते हैं । कथा के बीच में औसर, रिष्वतखोरी, राजनैतिक संरक्षणवाद और प्रेम प्रसंग के माध्यम से सरसता और विस्तार का सूत्र बुना गया है । अंत में पता चलता है कि यायावर मानवाधिकार आयोग का अभिकर्ता श्रीकांत है । सार रूप में किसान अंत भला तो सब भला के सूत्र वाक्य के दृष्टिगत सुकून की सांस लेते हैं और अपने भीतर की आग को बुझने न देने का संकल्प लेते हैं और पेमा काका इंसपेक्टर रजनी को श्रीकांत उर्फ यायावर से यादी करने की सलाह देता है जिसे सुन कर वह ्यर्मा जाती है । भाग अ-2 प्रस्तावना के इस भाग में हम बात करेंगे कथ्य के सामान्य विष्लेड्ढण के संदर्भ में । इस हेतु सबसे पहले विचार करते हैं उपन्यास के कथाबंध पर । कथाबंध कथ्य के परिचय के बाद जब हम कथाबंध को देखते हैं तो दिली सुकून मिलता है । कथाबंध का यह अनुभव ठीक वैसा ही सुख देता है जैसा कि किसी पैदल यात्री को चिलचिलाती धूप में प्यास से छटपटा कर पपड़ी जमते होठों को अनायास मिले किसी जल-स्त्रोत को देख कर मिलता है । दर्षन का एक भरा-पूरा विराट संसार उपन्यास में ्यामिल करने की उपन्यासकार की चाही-अनचाही तमाम कोषिषों के बावजूद कथाबंध की सरसता पाठक को बांधे रखने में सक्षम व समर्थ है । यह सक्षमता कथाबंध के स्तर पर उपन्यासकार के प्रयास को उपयुक्त ठहराती है । भाशा ‘यायावर’ की भाड्ढा नागिन सदृष है । कभी फुफकारती है तो कभी बल खाती, अंगड़ाती है । कभी आह्वान करती है तो कभी कचोटती-झकझोरती है । कभी रोती है तो कभी चिंघाड़ती है । कभी मारती है तो कभी पुचकारती है । कभी काटती है तो कभी मरहम लगाती है । कभी नाचती है तो कभी नचाती है । भाव यह है कि उपन्यास का भाड्ढा पक्ष कुछ एक अपवादों को छोड़ कर बेजोड़ है । पत्र की अपनी सीमाओं के बावजूद मैं कुछ भाड्ढाई कतरनें आपसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं- - कर्ज, भूख और बीमारी गरीब के लिए त्रिदोड्ढ है । यह त्रिदोड्ढ मृत्यु के साथ ही समाप्त होता है किन्तु जब तक देह है, मानवीय पीड़ाओं से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकते । गरीब के लिए मृत्यु ही उसका अपवर्ग है । - संध्या की पूजा में अतिव्यस्त महाजन आज की दिन-भर की लूट को परमात्मा के समक्ष जायज करने में लगा है । परमात्मा भी पता नहीं क्यों महाजन की कुटिलताओं से घिर गया है । नितराम लूटने की नूतन विधाओं का रास्ता दिखाता है । - लगता है भिखमंगों ने भी भूख के सिद्धांतों की पृथक से कोई पुस्तक लिख डाली है । - महाजन का अहाता किसानों के स्वेद और श्रम का मजाक उड़ाने का आदिम स्थल है । - ऐसा लग रहा था मानो सभी बुद्धिजीवियों के पेट में आत्मष्लाघा के मरोड़े चल रहे हों । - लगता है आसमान और महाजन के बीच कोई गुप्त समझौता है । - गरीब की विचारधारा का कोई साहित्य नहीं होता, वह तो सदैव अमुद्रित ही रहता है । गरीब के मन की पांडुलिपियां यूं ही कूड़ेदान में पड़ी रहती है । ्यायद इन्हीं अमुद्रित पांडुलिपियों को डाॅ. यादव ने पुस्तकाकार रूप् में प्रस्तुत कर अपने मन के संकल्प को अभिव्यक्ति दी है । प्रभावसत्ता हर रचनाकार अपने देष-वेष-परिवेष या साथी-दुष्मन या घर-परिवार या मित्र लेखक रचनाकार से किसी न किसी रूप् में प्रभावित अवष्य होता है । इस प्रभावसत्ता का अनुपात कम या अधिक हो सकता है । ‘यायावर’ के उपन्यासकार डाॅ. मनमोहनसिंह यादव को जब हम इस मायने में कूंतते हैं तो कई सारे चरित्रों की छाया-प्रतिछाया, असर या प्रभाव से हम साक्षात होते हैं । उपन्यासकार कभी हमें केन्द्रीय साहित्य अकादमी से पुरस्कृत असमिया उपन्यास ‘अघरी आतमार काहिनी’ से प्रभावित दिखते हैं, जिसका बाद में ‘यायावर’ ्यीड्र्ढक से श्री सत्यदेव प्रसाद ने हिन्दी अनुवाद भी किया, तो कभी गोदान के होरी व झमिया से अनुराग रखते लगते हैं । कथ्य-कथानक और रचना-प्रक्रिया के स्तर पर कहीं उपन्यासकार श्री अन्नाराम सुदामा के ‘मेवै रा रूंख’ और ‘डंकीजता मानवी’ के पात्रों के प्रति श्री यादव का मोह प्रतिबिम्बित होता है तो सनसनीखेज व सर्व ्यक्तिमान पात्रों की रचना करने वाले देवकीनन्दन खत्री की याद भी वे ताजा कर देते हैं । प्रसंगवष दूरदर्षन से प्रसारित ्यक्तिमान धारावाहिक का ्यक्तिमान भी हमारे स्मृति-पटल पर यायावर के रूप में दस्तक देता है । महाभारत काल के कृष्ण-सुदामा चरित्र भी हमें यत्र-तत्र देखने को मिलते हैं । इतने सारे चरित्रों की छाया या प्रभाव से हुए असर को सकारात्मक रूप में हम समग्रता की दृष्टि से देख सकते हैं तो आलोचकीय आंख से मौलिकता का अभाव भी कह सकते हैं । प्रस्तुतिकरण आज के अधिसंख्य हिन्दी उपन्यासों का आरंभ व्यक्ति जीवन की किसी घटना या प्रसंग से होता है । ‘यायावर’ का आरंभ लुखी और सुखा के वार्तालाप से होता है । न देषकाल का वर्णन है, न पात्रों का अन्तर्बाह्य रूपांकन ही है । वार्तालाप से ही हमें समय का ज्ञान होता है । इसी से पात्रों के वैयक्तिक, सामाजिक व आर्थिक स्तर का पता चलता है । इस ज्ञान से अभावग्रस्त जीवन-झांकी की रेखा बन कर उभरती है । यह वार्ता वक्त की सुईयों के संग तेजी से निकल जाना चाहते आसाढ की संध्या को उपस्थित करती है । सुबह की भूख की चिंता और इन्द्रदेव की नाराजगी वार्ता में जाहिर होती है । पारिवारिक जीवन का यह चित्र ्यीघ्र ही गांव की सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तित हो जाता है । हमारे सम्मुख गांव के जीवन का नियंत्रण करने वाली सामंतवादी व्यवस्था का रंग खुलने लगता है । सत्ता, धन, भूमि व सम्पदा के आधार पर मनुष्य और मनुष्य के बीच स्वामी-सेवक, ्यासक- ्यासित का स्नेहहीन सम्बन्ध बना हुआ है । किसान यदि जिंदा है तो जमींदार की कृपा के कारण । उपन्यासकार का यह कथ्य संकेत अंदाज ही उसे अन्य रचनाकारों से अलग खड़ा कर नए पाठकीय विमर्ष की मांग करता है । विषेड्ढ समस्या का विषेड्ढ ढंग से चित्रण करके कई उपन्यासकार सफल हो चुके हैं परन्तु निर्विषेेड्ढ रूप से भारत की सामान्य जनता का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने के लिए यायावर को याद रखा जाएगा । उद्देष्य निरूपण ‘यायावर’ में भारत के कृड्ढक समाज, महाजनी सभ्यता, जमींदारों का दुव्र्यवहार, असहाय ग्रामीण जनता, सरकारी कारिंदों का प्रामाणिक चित्र हमें प्राप्त होता है । सामाजिक समरसता और सदाचार का उपस्थापन उसका मूल मकसद है । यहां मैं विवेकानंद के वक्तव्य का संदर्भ लेना चाहूंगा -‘सतत् अत्याचार से बेचारे दरिद्र लोग धीरे-धीरे यह भी भूल गये कि वे मनुष्य हैं । ्यत- ्यत सदियों से उन्होंने बाध्य होकर कीर्तदास की तरह केवल पानी भरा है और लकड़ी काटी है । उन्हें ऐसा विष्वास करने के लिए ही उनका जन्म है, पानी पिलाने तथा बोझा ढोने के लिए ही वे पैदा हुए हैं ।’ यह जीवंत दर्षन रचना हर किसी के वष में या सामथ्र्य में नहीं होता । यह कार्य बेहद चुनौतीपूर्ण है और चुनौतियों को स्वीकारने वाले ही महान होते हैं । अज्ञेय के मतानुसार ‘जिस लेखक के बारे में हम यह कह सकें कि उसने हमें जो सत्य दिया वह न केवल हमारे व्यापकतम अनुभव क्षेत्र का है बल्कि इसने हमें न दिखाया होता तो यह अनदेखा रह जाता ।’ सार रूप में यही कह सकते हैं कि सम्भावनाओं की जमीन पर उम्मीदों के बिरवे बोकर आषाओं के फल लगाने की कुव्वत रखने वाले सृजनधर्मी ही लोक हित और लोक कल्याण के महायज्ञ में आहूति दे सकते है । डाॅ. यादव ने एक गंभीर और षिद्दत-भरा आहूति प्रयास किया है। अब हम चलते हैं इस प्रतिवेदन के अहम भाग यानि भाग ब की तरफ जो कि किसी भी प्रतिवेदन की आत्मा होता है और जिस संस्था से जुड़ा प्रतिवेदन होता है, उसके कार्मिक सबसे पहले इसी भाग को देखते-पढते और समझते हैं क्योंकि उन्हें इस भाग का प्रत्युत्तर या अनुपालना प्रस्तुत करनी पड़ती है । प्रस्तुत है खण्ड -‘ब’ यायावर की संपूर्ण यायावरी से मुखातिब होने के बाद कुछ आपत्तियां, असहमतियां, आक्षेप या जिज्ञासा रूपी सवाल पाठक के मन में सहज भाव से उठते हैं । ऐसी ही कुछ परिस्थितियों की विगत इस प्रकार है - 1. कथावस्तु के अनुसार सूखे की पत्नी लुखी एक अपढ महिला है । बावजूद इसके उपन्यासकार उसके मुंह से ज्ञान व दर्षन एक विराट संसार मुखरित करवाता है । एक अपढ पात्र का यह ज्ञान निदर्षन पाठक के गले नहीं उतरता । 2. पारिभाड्ढिक रूप से यायावर का कोई स्थाई पता-ठिकाना नहीं होता लेकिन इस कथा क्रम में अमिया काकी का घर उसका रहवास है । आस-पास के गांव में घूमने के अलावा उसकी यायावरी भी प्रदर्षित नहीं होती है । ऐसे में वह यायावर कैसे हो सकता है ? 3. जिस व्यक्ति के बारे में कोई सार्वजनिक जानकारी न हो उसे कोई अपने घर में सदस्य की तरह रख ले, यह सम्भव प्रतीत नहीं होता । 4. एक चमत्कारिक सर्व ्यक्तिमान पात्र अजनबी बाबू कथा को आगे बढाता है परन्तु अकेले ही बिना किसी अस्त्र-षस्त्र के कई लोगों को एक साथ मार भगाना पाठक के गले नहीं उतरता । एक तरफ नगा यथार्थ रचा गया है तो दूसरी तरफ एक बेहद काल्पनिक चरित्र । यह विरोधाभास कथा के जमीनी जुड़ाव को कमजोर करता है । 5. यायावर धान के चार गाड़े गांव वालों के लिए लाया । सुखे को बैल दे दिया । कर्ज चुकाने के लिए पैसे भी दिए । परन्तु यह सब कुछ वह कहां से लाया या इनका स्त्रोत क्या रहा, अंत तक खुलासा नहीं होता है । 6. झमिया सेठ के कुए में लहुलुहान पाया जाता है । उसे लहुलुहान किसने किया । वह चैटिल कैसे हुआ ? यह सवाल पाठक को विचलित करता है परन्तु अनुत्तरित रहता है । 7. पहचान कार्ड के मुताबिक श्रीकांत उर्फ यायावर पूरे देष में जुल्म के खिलाफ कार्य करने के लिए अधिकृत है । अनाचार के खिलाफ लड़ाई के लिए अधिकृति की आवष्यकता या जरूरत कब से होने लगी ? इनके अलावा भी कई प्रसंग है जिनमें चर्चा व बहस की गुंजायष है । इन जिज्ञासाओं और असहमतियों के बावजूद ‘यायावर’ की अनन्यता का प्रमुख कारण इस उपन्यास में भारतीय जीवन का व्यापकतम प्रतिनिधित्व और जनजीवन का अत्यन्त आलिप्त चित्रण है । प्रतिवेदन के निष्कड्र्ढ रूप में मैं यायावर के इस उद्घोड्ढ को रखना चाहूंगा - ‘ज्ञान के महापंडितों ! जरा जमीन पर उड़ने की कोषिष मत करो, जमीन की सच्चाई का खयाल करो । तुम्हारे ्यब्दों के ्यतरंज ने ही नैतिक मूल्यों को पुस्तकों के अजायबघर में रख दिया है । कागज में सत्य खोजने वालों, जरा लालटेन लेकर उस तंग बस्ती को देखो, जहां एक गरीब सिसकी और सुबकी में डूबा हुआ भी अपने ईमान की रक्षा कर रहा है, जरा रोको उस कुलीन को जो अपनी आरामगाह में बैठा मूल्यों का मीनाबाजार लगा रहा है । तुम भी वही कर रहे हो जो कुलीन कर रहा है । वह बाजार लगा रहा है और तुम ग्राहक पैदा कर रहे हो !’ अब समय की इस नीयति को बदलना लाजमी हो गया है । वरना हम सिर्फ एक वस्तु या ग्राहक के रूप में रह जायेंगे और एक नया सांस्कृतिक खतरा हमारे वजूद को लील जाएगा । निर्णय आपके हाथ है । 00

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