रविवार, 17 जुलाई 2011

कविता से कविता तक

प्रसंगवश         
अमृत-कलश की तलाश में खुद से जूझता 
आधी-सदी के अनुभवों का स्वप्न:
                         कविता से कविता तक  
          
साथियों !  सोच रहा हूं, बात कहां से शुरू करूं ? कल सुबह और रात के पूरे घटनाक्रम के बाद मन काफी बैचेन और विचलित है । ऐसे में सीधा मुद्दे पर आना मेरे लिए सहज नहीं है । खैर ! प्रसंगवश जब बात से बात निकल ही आई है तो आप से भी साझा कर लूं ।
हुआ यूं कि कल सूर्य की सुनहली किरणों से नहाया ‘पहला सुख निरोगी काया’ के शाश्वत मंत्र का जाप करते हुए मैं घर के सामने ही  अवस्थित गांधी पार्क में चला आया और खुद को अपने ही शरीर के चक्कर लगाते पाया । मैं तन से बाॅडी बनाने में जुटा था पर मन छोटे भाईयों की शादी, धर्मपत्नी के माईग्रेन, बड़ी बच्ची के रिश्ते, बच्चों की पढाई व कैरियर तथा कार्यालय के तमाम लम्बित कार्यो से अटा था । चेतना न जाने कौन-कौन से रंग दिखा रही थी और लोकाचार के बहाने दिमाग को कैसी-कैसी वर्जिश करवा रही थी ।
खैर ! बहरहाल किस्सा यूं शुरू हुआ कि मेरा ध्यान अचानक भटक कर दूर बैंच पर बैठे सीनियर सीटिजन की ओर चला गया । मेरी आंखों के अक्स में उसकी पीठ थी । मुझे लगा, अरे ! यह तो मेरे ही संगी-साथी-सखा-मित्र है । मैं दिल से उपजे अतिरिक्त अनुराग के चलते अपने तमाम झमेलों को वहीं छोड़ भागता-सा उसके पास जा पहुंचा । आहिस्ता-से अपनी हथेली उसके कंधे पर रखी और  भरे गले से सिर्फ यही कह पाया -‘साहित्यराम ! तुम यहां ?’
वह गड़बड़ाया, मेरा हाथ हटाया, कुछ झुंझलाया, कुछ झल्लाया, कुछ तिलमिलाया और फिर मुझे जोर का झटका धीरे-से देकर वह जवां बुजूर्ग कुछ यूं बड़बड़ाया -‘आपकी तारीफ ? मैं साहित्यराम नहीं, साहबराम हूं ।’ फिर बिना कोई मौका दिए मैंने उसे नजरों से ओझल पाया । 
मित्रों ! यह सही है कि मेरी आंखें कमजोर है ।  मेरी दूर की दृष्टि ठीक नहीं है पर वह तो मेरे बिलकुल नजदीक था । मैंने चश्मा भी पहन रखा    था । नहीं, मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकती । वह साहित्यराम ही था । विचार प्रांत के संवेदना नगर वाले चेतना मौहल्ले का विचार वासी । सौ टका वही । सही कहता हूं मैं । शत-प्रतिशत वही, आपका और मेरा साहित्यराम । देश-समाज का संगी-साथी साहित्यराम । लोक मंगल का चितेरा  साहित्यराम । संस्कृति-सदाचार का वाहक साहित्यराम । वही दबंगी स्वभाव, वही अलमस्त अदा, वही अक्खड़पन, वही रौब-रूआब । हां, संस्कार और चरित्र में मुझे जरूर कुछ बदलाव लगा ।  न जाने क्यूं वह खुद के होने को नकार कर स्वयं को साहबराम बता रहा था । यही वह कारण था कि मेरी निरोगी काया से जुड़ी तमाम वर्जिशें चेतना कुण्ड में आकर ठहर-सी गई । मैं लोक के तत्सम-तद्भव स्वरूपों में भेद की शक्ति खो बैठा । 
अब आप ही बताईये ! ऐसे में क्या कोई सहज रह सकता है ? हमारा कोई अपना या यूं कहूं- हर दिल अजीज अपना इस तरह हमारी रागात्मकता व परिचय के तमाम बंधनों को सिरे से खारिज करके चल पड़े, तो क्या हमें पीड़ा नहीं होगी ? उसके इस आचरण व व्यवहार से क्या अप्रभावित रह पायेंगे ?
शायद नहीं । इसीलिए मैं विचलित था । पूरी तरह गड़बड़ाया हुआ । मेरा यह बेहाल हाल देख कर श्रीमतीजी के भीतर शक्ति स्वरूपा मंगला आ विराजित हुई । वह भिन्न-भिन्न तरीकों से मुझे ढांढस बंधाती रही, आश्वस्त करती रही । ईश्वर सब ठीक करेगा, आप तनाव मत लीजिए ।  अब आप ही बताइये, उस भली मानुष को कैसे बताऊं कि मेरा रोग क्या है ?
वक्त की अपनी नीयति है । उसे रोक पाना या थाम पाना सम्भव  नहीं । जैसे-तैसे दिन गुजर गया । दिन-भर साहित्यराम के सामाजिक सरोकारों, निजत्व के प्रसंगों, उसके विविध प्रसंगों-संस्मरणों में उलझा, सुलझने के लिए हाथ-पांव मारता रहा पर हुआ यूं  कि मैं इसमें गहरे-दर-गहरे उतरता-डूबता रहा । 
गिल्सन का यह सूत्र कि सुंदर चीजों पर यकीन बनाए रखिए । याद रहे, सूरज डूब गया तो वसंत भी नहीं आएगा, ही मेरा एक मात्र आलम्ब   था । ‘एक सख्श हर दिन संगीत सुने, थोड़ी-सी कविता पढे और अपने जीवन की सुन्दर तस्वीर रोज देखे.... उसे सुन्दरता की परिभाषा तलाशने की जरूरत नहीं । क्योंकि भगवान ने सारे संसार का सौंदर्य उसकी झोली में डाल रखा है ।’ गोएथे के इसी परामर्श को मान कर मैं धीमी आवाज में जहां संगीत सुन रहा था, वहीं मेरी आंखों में ‘कविता से कविता तक’ की पुस्तक समाई थी । भूख, गरीबी, अकाल, अनाचार, व्यवस्थायिक विद्रूप, सामाजिक विचलन, नैतिक मूल्यों के क्षरण, चेतन-अवचेतन के देखे-अनदेखे जीवन सत्यों, फूलों की सरगम के बीच बिखरी हुई मौसम की लय को साधता-अंवेरता न जाने कब नींद के आगोश में जा समाया । 
आंख लगे थोड़ा ही वक्त हुआ होगा कि मैं ‘कविता से कविता तक’ में बुने तकरीबन आधी सदी के अनुभवों का स्वप्न लिए फिर से साहित्यराम के समक्ष उपस्थित था । उसका दरबार सजा था । इस बार वह अकेला नहीं था । उसका पूरा कुनबा लम्बी कविता यानि माई, कविता, गीत, गजल, रूबाई , नवगीत व दोहासिंह सभी मौजूद थे । 
-‘अरे ! तुम तो वही सुबह वाले ही हैं । तुम तो साहित्यराम हो ना ? फिर अपनी पहचान छुपाने का मतलब ?’
-‘शांत, दोस्त ! शांत । मुझे पता है कि तुम काफी विचलित हो । थोड़ा धैर्य धरो, तुम्हें सब कुछ समझ आ जाएगा ।’
मैं कुनमुना कर रह गया । भावनाओं में बह गया । मंत्र-सम्मोहित-सा बंधा-बंधा उसकी सारी बातें सह गया ।
-‘तुमने ठीक पहचाना था दोस्त । मैं ही तुम्हारा साहित्यराम हूं । एक वक्त था जब साहित्य का अर्थ सिर्फ और सिर्फ कविता से लगाया जाता था । समाज के मंगल और लोक कल्याण का आधार यही हुआ करती थी । पर समय के साथ जरूरतें और आवश्यकताएं भी तो बदलती है ना मित्र ? भिन्न-भिन्न तरह के नये-नये रोग सुनने में आ रहे हैं, जिनका पहले कभी नाम भी नहीं सुना हमने । ऐसे में क्या चिकित्सक उन्हीं परम्परागत औषधियों से उपचार कर पाता है ? नहीं ना ? उसे वक्त के बदलाव को, समय के मिजाज को आत्मसात करके ही उपचार के तरीके का निर्धारण करना पड़ता है, वरना दैनन्दिन मूल्य बोध से, नवीन संस्कारों से साक्षात होते समाज द्वारा उसे नकार दिया जाएगा । यही आधार सत्य साहित्य के मामले में लागू होता है मित्र । लोगों की रुचि, मिजाज, तहजीब, तमीज और तासीर सब कुछ बदल रहा है तो फिर तुम मुझे परम्परागत ढांचे में ही क्यों कैद रखना चाहते हो ?’
-‘पर तुम्हारे नाम बदलने से इसका क्या मतलब ?’
-‘मतलब है मित्र । आज वक्त बदल गया है । यह साईबरयुग है । पूरा विश्व आठों पहर, चैबीसों घण्टे हमारी एक अंगुली के क्लिक के तले दबा रहता है । हर व्यक्ति जुदा टेस्ट के रोग से ग्रस्त है । ऐसे में मुझे तो बदलना ही था । अब तुम्हीं बताओ - आज कितने लोग हैं जो महाकाव्य लिखते या पढते हैं ? चरित्र चित्रण की गुंजायश अब नहीं रही मित्र । साहित्य का सामाजिक उत्तरदायित्व भी तुझ से छिपा नहीं है । सभी की पसंदगी का खयाल और अंवेर होनी चाहिए ना ? यही कारण है कि कविता आज कई रूपों में तुम्हें देखने को मिलती है । समझे ?’
साहित्यकार का नाम बदलना अब भी मेरे पल्ले न पड़ा था ।  मैं अपनी असहमति जताना ही चाहता था कि माई  बोल पड़ी -‘यह जो तुम कविता से कविता तक का ग्रंथ सीने-से चिपकाये हो, क्या तुम्हें इसमें तीन पीढियों के संस्कार नहीं मिलते ? तकरीबन आधी सदी के जज्बे, जज्बात, जिद्द, जुनूून और जरूरत का प्रतिदर्शन नहीं दिखता ? श्री रामगोपाल शर्मा ‘दिनेश’ की लम्बी कविता ‘आत्म निर्झर’ क्या तुम्हें संस्कारवान पुरातन समाज और कविता की अनुगूंज से गंुजित नहीं करती -‘
वह देख रहा आकाश वही
जिसको उसने मथ डाला था, 
धरती से द्यौ तक चह जिसमें
फैला बन अहम निराला था:
वह तो अभाव से भरा हुआ
वे ज्योतिपिण्ड न उसके हैं ।
वे सब धरती के सहगामी,
सब पात्र प्रणय के रस के हैं ।
दीदी ! तुम भी हर वक्त अपने ही जमाने में जीती रहती हो । अब वक्त की धार व पाठकीय मिजाज बदल गया है । कवि किसी भी परिस्थिति में नैराश्य से नहीं जुड़ना चाहता । हर हाल में आशावान बना रहता है । अंधेरे की कोख में छिपे उजाले को देखता और रचता है । उसकी यही आस्था और प्रगतिशीलता सामाजिक समरसता और उन्नयन का आधार तैयार करती है । कवि विजेन्द्र अपनी कविता ‘आशा’ में यही संदेश देते हैं । मुक्त छंद कविता ने हस्तक्षेप किया -
इसी अंधेरे में उगेंगे
पंखधारी प्रकाश-कण
जो दिखायेंगे मुझे
मेरा जीवन पथ  ।
डूबने दो सूर्य को
उन पहाड़ों के पीछे
उदित होने की नई आशा से  ।
देंगे प्रकाश वही मुझे
जो आए हैं चीर कर
अंधेरे के मर्म को ।
हमारे यहां का मौसम भी मन के भावों की तरह बदलता रहता है । गर्मी को रेखांकित करती कवि जगदीशचन्द्र शर्मा की कविता ‘गर्मी’ की ये पंक्तियां अपने आंतरिक सौंदर्य के चलते बरबस ही पाठक को अपने में ले कर भीतर तक गर्मा देती है -
सीने पर उभरे हैं
प्रश्न-चिह्न चोटों के,
झेलने पड़ते हैं
वार कई सोटों के ।
मन ही मन दबती है
दर्द भरी सिसकारी,
लू की ही छूट रही
धुआंधार पिचकारी । 
बसंत के आगमन के अहसास को कवि भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’ कुछ यूं बयां करते हैं -
राग की गोदी में झरते हुए स्वर
तैरने लगते हैं जब
पंखेरूओं की पांखों पर
और दिशाएं बन जाती है मोरचंग ।
मौसम की वैणी में
एक साथ गंुथने लगते हैं
जब शब्द और स्वर
और भर जाते हैं जगह-जगह रंगों के मैले
तो लगता है बसंत आ गया है । 
‘आप लोग अपनी ही हांकते रहेंगे या मेरी भी कोई सुनेगा ?’ गीत ने उलाहना दिया और मुंह मरोड़ लिया । यह देख कविता चुप हो गई । साहित्यराम ने उसे लड़ाते हुए कहा-‘बेटी । तू तो आम जन मानस का कण्ठ-हार है । तुम्हारी बदौलत ही तो लय, सुर व ताल के रसिक मुझसे रू-बरू हो पाते हैं । प्रसिद्ध गीतकार मरूधर मृदुल ने अपने गीत ‘हम’ में तुझे ही तो रचा है -
खुद पांचाली भरी सभा में
तन नापे और चीर उतारे
दहलीजों के सन्नाटों में 
चीखों के दहके अंगारे,
धन की आग लपेटे तन पर 
ऐसी नार नवेली हम
जिसकी सारी कटी लकीरें
ऐसी एक हथेली हम ।
अब मुझमें समकालीन संदर्भो के तमाम प्रसंग और मूल्य समाहित हो गये हैं । अब सिर्फ लय-ताल का मैल मात्र नहीं, वक्त की नब्ज बन गई हूं मैं । मेरी दृष्टि प्रत्यक्ष और पाश्र्व दोनों सूत्रों पर बनी रहती है । समाज का चरित्र भी अब मेरी काया में समा गया है । नमूना देखिए श्री विश्वेश्वर शर्मा के गीत ‘हम बहारों के काटे हुए हैं’ की इन पंक्तियों में - 

गोश्तखोरों के हम जानवर
काटने को बनाये गये हैं,
काले सांपों के चूमे हुए हैं
जंगली रीछों के चाटे हुए हैं ।
जोर से गीत गाया नहीं है
सच किसी को जताया नहीं है
जो दबाने से बजती है घण्टी
बो बटन तो दबाया नहीं है ।
डुगडुगी के डराये हुए हैं,
बांसुरी के ही डांटे हुए हैं ।।
मनुष्य अब पहले जितना सहज नहीं रहा । भीतर कोहराम मचा रहता है, आग सुलगती रहती है, फिर भी सब कुछ ठीक होने का स्वांग करता है । इन्हीं स्थितियों को गीतकार बलवीरसिंह करूण अपने ‘ऋतुगीत’ में इस प्रकार बताते हैं -
विध्वंसों के पंख लगाये
हम जाने किस ओर चले
नवोन्मेष की लिप्साओं में
सुख का कंठ मरोर चले...
शायद नई सभ्यता ने ही
पर काटे उल्लास के
महके कम दहके ज्यादा हैं
टेसू सूर्ख पलाश के । 
मैं मात्र दर्शक बन कर रह गया । सब कुछ यंत्र-चलित-सा था । गीत जम्हाई लेने को रूकी नहीं कि गजल शुरू हो गई । एक वक्त था जब गजल मात्र रूप-सौंदर्य के वर्णन तक सीमित थी । अब तो पूरा सामाजिक परिदृश्य हमारे भीतर समा गया है । हमें चाहने वाले सिर्फ हम से ही रुचते हैं । सत्ता की कृपाकांक्षा में कलम घिसने वालों को ललकारते हुए वह डाॅ. मनोहर प्रभाकर की यह गजल सुनाने लगी -
गई कलम की धार कहां है ?
खनक रहा कलदार जहां है ।
सर्जक सत्ता के गिरवी हैं,
सच का पहरेदार कहां हैं ?
दूर उजालों में जो बस्ती 
वहां तीज-त्यौंहार कहां है ?
गजल नवराग का आह्वान करने ही वाली थी कि नवगीत बीच में ही कूद पड़ा । आज लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वे लम्बी-लम्बी रचनाएं पढे और उनका अर्थ भीतर उतारे । अब तो हमारा वक्त है । कम से कम शब्दों में अपनी सम्पूर्ण अर्थवत्ता के साथ पूरा परिदृश्य उत्पन्न हम ही कर सकते हैं । हमारी आंतरिक लय भी हमारे जुड़ाव का मार्ग प्रशस्त करती है ।  श्री राम जैसवाल की ‘शहर’ शीर्षक से संकलित इन चंद पंक्तियों में बदलाव के तमाम परिदृश्य साकार हो उठते हैं -
कैसा हो गया 
इस शहर में अपना होना
कि दर्पण में तुम्हें
अपने साथ ढूंढते 
दर्पण ही हो गई जिन्दगी,
जिसमें दिखाई तो पड़ता है सब
पर हाथ नहीं आता कुछ भी । 
आज वातावरण में दहशत इस कद्र छा गई है कि कोई भी भला आदमी घर से बाहर तक नहीं निकलना चाहता । क्या पता कब उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जावे ? कवि नरेश मेहन अपनी ‘सिर’ रचना में खुद के बहाने समूचे समाज के लिए इसी चिंता से ग्रस्त दिखते हैं -
घर से निकलते
अपना सिर
धड़ से अलग कर हथेलियों पर ले लेता हूं
...
जब लौटता हूं तो अपना सिर
धड़ पर लगा कर
शाम को गिनता हूं परिवार के सिर
कहीं किसी का सिर
हथेलियों पर तो नहीं रह गया ।
रात का वक्त था और बाहर अंधेरा काफी गहरा गया था । ऐसे में नवगीत ने जम्हाई लेने के लिए अभी पूरी तरह अपना मुंह भी न खोला था कि रूबाई ने उसकी अंगुली दबाई और खुद मैदान में कूद आई । डाॅ. पद्मजा शर्मा की ‘इस ब्रह्माण्ड में’ की ये पंक्तियां तल्लीन भाव से कुछ यूं सुनाई -
न इस सृष्टि में
 जन्म-मरण है
न उत्पत्ति-विनाश है,
है तो बस चैतरफा
प्यार का प्रकाश है ।
इस सृष्टि में झरने हैं
न बरसात
नदी न समन्दर
युगों से बह रहे हैं
मैं और तुम । 
‘अरे परम आदरणियों ! अब क्या बच्चे की जान ही लोगे ? मैं शक्ल-ओ-सूरत में छोटा हूं तो क्या हुआ, अर्थ का गांभीर्य तो मुझ में भी उसी रूप में बसता है । मैं भी सामाजिक हूं । समाज में रहता हूं, इसी को जीता, रचता और भोगता हूं । कुछ तो मेरी भी सुन लो ।’ दोहासिंह जो अब तक सबकी सुन रहा था, का धैर्य चुकने लगा । उसने अपना मिजाज और मनगत डाॅ. विद्यासागर शर्मा के शब्दों में कुछ ऐसे सार्वजनिक किया -
अब दिन में भी डर लगता है, लगता था जो रातों में ।
अंधियारों में चोरी होती, ठग ठगते अब बातों में ।।
उत्सव और विवाह में अब, घर गौण हुआ सड़के चमकी ।
आंगन में खाते थे खाना, फंक्शन आज कनातों में ।।
टूटा-बिखरा दिखता कुनबा, अब सांझा चुल्हा नहीं रहा ।
हम टूटे बटन कोट के हैं, क्या बचा  रिश्तों-नातों में ।।
‘माफ करें साहित्यराम !  ‘कविता से कविता तक’ की आपने पूरी यात्रा करवा दी पर मेरा प्रश्न अब भी अनुत्तरित ही है कि आपने नाम क्यों बदला ?’ मैंने अपने भीतर कहीं कुलबुलाते और यक्ष बनते जा रहे प्रश्न को फिर उछाला ।
अरे भाई ! इस आधी सदी में जब तुम्हारी तीन-तीन चार-चार पीढियां तुम्हारे वंशजों के रूप में फल-फूल रही है, तो क्या मेरी वंश-वृद्धि नहीं   होगी ? बरसों पहले के तुम्हारे अल्हड़ बालपन को आज लोग ठाकुर साहब कह कर सम्बोधित करते हैं और तुम्हारी छाती चैड़ी हो जाती है, तो क्या मैं अपनी इन शाखाओं से मुदित न होऊं ? तुम इसे विखण्डन कह सकते हो, पर यह वास्तव में तो मेरी समृद्धि है । वक्त की मांग और समय के मिजाज के चलते चाहे में अलग-अलग रूपों में जाना जाता हूं, पर खून तो वही है । मेरे कुनबे के सामाजिक सरोकार और प्रतिबद्धताएं तो वही है ना ? इतना कुछ पाकर क्या मैं साहब नहीं हो सकता ? आज हर पल जब हमारा अहसास बदलता है । संवेदना और विचार का फलक रूप परिवर्तन करता   है । रिश्तों के अर्थ और सम्बन्धों के सामाजिक संदर्भ व मायने बदलते हैं । ऐसे में किसी पुस्तक में  जब तीन पीढियां अमृत-कलश की तलाश में खुद से जूझ कर आधी-सदी के अनुभवों का स्वप्न बुनती है तो क्या मैं यथावत रह सकता हूं । नहीं, यह समाज के साथ न्याय नहीं होगा । यह सही है कि काफी कुछ छूट भी गया है पर संवाद और संकलन की अपनी सीमाएं होती  है । वक्त की अपनी मर्यादाएं होती है ।  इसलिए मैं जो कभी कविता के रूप में परिभाषित होता था, आज भी उसी आत्मीयता से स्वीकारा जाता हूं । हां, मेरा रूप-स्वरूप और परिवेश अवश्य बदल गया है । सम्बोधनों में नाम अवश्य बदल गया है, पर मेरा हेतु व प्रयोजन आज भी वही है । तभी तो श्री मुरलीधर वैष्णव कहते हैं -
चीत्कार करती है वह तब
जब एड्सग्रस्त वेश्या
अपने संसर्ग से
दर्जनों को संक्रमित कर
प्रतिशोधवश अट्टहास करती है ।
मित्रों ! मेरी कविता फिसल रही है
मुट्ठी में बंद बालू रेत-सी
भटक रहा हूं मैं
बदहवास-सा
अपने ही बनाये बियाबान में
किसी अमृत-कलश की तलाश में । 
‘ऐ भैया साहित्यराम ! काहे इत्ता इतराते हो ? डा. भगवतीलाल व्यास के सुधी सम्पादन में ‘राजस्थान के कवि’ भाग-4 का थोड़ा-सा रूप निखार का हुआ, तुम तो कपड़ो में नहीं समाते हो । का तुम नहीं जानते कि इन्हीं तीन पीढियों के कई ख्यातनाम कवि छूट गये हैं । ठीक है, उनकी अपनी हदबंदी थी, सत्तर लोग ले लिए, आखिर कितने समाते इस एक पोथी में । पर यह तो तुम भी जानते हो कि कई शामिल कवियों की चयनित रचनाओं से इतर दूसरी कविताएं ज्यादा अच्छी थी । का भगवतीलालजी के इस कथन से तुम्हें पूर्ण छूट मिल गई कि कविताओं के बारे में मैं खुद कुछ नहीं कहूंगा, ये खुद बोलेगी ? ना ही भाई साहित्यराम, ना ही ! जब प्रतिनिधि संकलन की बात करते हो तो रचनाएं भी तो प्रतिनिधि ही होनी चाहिए ना ? प्रकाशित-अप्रकाशित का झण्झट भी न था, तो फिर पांच-सात मामलों में यह लापरवाही क्यों ?’न जाने कहां से पड़ौसन आलोचना आकर साहित्यराम को खरी-खोटी सुनाने लगी । 
‘अब कैसा लग रहा है आपको ? रात को आप नींद में न जाने क्या क्या बड़बड़ा रहे थे, तो डाॅक्टर को दिखा कर नींद का इंजेक्शन लगाया    था ।’ श्रीमतीजी चाय का कप लिए मुझे जगा रही थी । कहीं कुछ नहीं था मेरे आस-पास । हां, ‘कविता से कविता तक’ की पुस्तक जरूर अब भी मेरे सीने से लगी थी ।    
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साथियों ! मेरा औपचारिक पत्र तो यहां पूरा हो गया है परन्तु काफी कुछ ऐसा है जो छूट गया है । कुछ समय-सीमा के कारण, कुछ मेरे अल्प ज्ञान व समझ के कारण तो कुछ मेरे प्रस्तुति के तरीके कारण । हां, मैंने प्रस्तुति का यह तरीका जरूर इसीलिए चुना ताकि नाम गिनाने के उपक्रम से बच सकूं, पुनरावृत्ति को रोक सकूं । मित्रों, मैंने सिर्फ कुछ कपड़े की कतरनें आपके अवलोकनार्थ नमूने के तौर पर आपको सौंपी है । थान काफी भारी और रंग-रंगीला है । कपड़े में काफी जगह बीच में भी अलग से डिजाईन है जो कतरनों में दिखना सम्भव नहीं है । अतः मैं तो यही  कहूंगा कि यदि वास्तविक कपड़ा देखना है तो आपको पूरा थान देखना पड़ेगा । 
धन्यवाद ।

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  • पुस्तक - कविता से कविता तक (राज. के कवि श्रृंखला का चैथा भाग)
  •          सम्पादक - डा. भगवतीलाल व्यास
  •          संस्करण - 2011 (प्रथम),  मूल्य - 375 रुपये
  •          प्रकाशक - राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर ।
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पाठक-मंच पत्र वाचन 
         (दिनांक 17.07.2011) 
    आयोजक - हिन्दी विश्व भारती अनुसंधान परिषद, बीकानेर
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जगजाहिर