शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

हिन्दी कविता


कब तक


आखिर कब तक
बनायेंगी घोंसले
ये भद्दी चिङियां
तुम्हारे बीझे कलेजे में
कब तक पङेगी
जयमालाएं
उनकी कबूतर-सी
गर्दन में
देश के बर्णधार
जुझारू पुष्प-से गुंथे
बेचारे
कब तक छटपटाते रहेंगे
इस कपट-कीचङ में 
छाती के छिद्रों में
चोंचे मारे मनचली
और कहे-
-आज, हमने किया बसेरा
कल 
और कोई डालेगा पङाव,
परसों
बिल्लियां करेंगी प्रसव यहां ! 
कब तक बसायेगा
छाती पर
काली चिङियाओं,
बिल्लियों को
पनपायेगा
सर्प-सपोलों को
आखिर कब तक ?


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जगजाहिर