बुधवार, 11 नवंबर 2009

कल्प-अश्व असवार



कल्प-अश्व असवार
 


  कब निहारे
रूप गौरी का
कब बोले 
दो मीठे बोल,
फुर्सत नहीं फसल से उसको
स्वप्न-दृष्टि मौन-अबोल ।
आंखों में बसता केवल
फसल का पसराव, 
शादी-न्यौता
पक्की साळ
चक्षु-मार्ग यही बिखराव । 
गौरी चाहे प्रियतम का संग
आंखें उसकी कहती सब
कुछ मुंह से कब बोले,
भरी जवानी
रूप-सौंदर्य
दब गया फसल के नीचे
बंद दरवाजा कौन खोले ।
कब उबरेगा
फसल स्वप्न से सांई मेरा,
कब देखेगा 
प्यार नजर से सांई मेरा । 
दोनों संगी इन्तजार में
कोई फसल पकने के,
कोई फसल कटने के/ 
कोई कर्ज छंटने के,
कोई दर्द बंटने के । 
रूप फसल निकलना चाहे
बंद दरवाजे पार,
दोनों ही दौङते जाते
कल्प-अश्व असवार ।



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जगजाहिर