रविवार, 7 फ़रवरी 2010

बसंत पंचमी और सरस्वती पूजा


बसंत पंचमी और सरस्वती पूजा


       ऋतुओं और मौसमों का प्रारंभ एवं पारगमन हमारे राष्ट्र की अमूल्य निधि है । ऋतुओं का यह पारम्परिक बदलाव यहां के वाशिदों को समय-समय पर सांस्कृतिक, सामाजिक व लौकिक सरोकारों, संस्कारों, अनुभूतियों, विचारों और मान्यताओं से रूबरू करवाता रहता है । कभी रवि की सुनहली पर धारदार अंतस तक उतरती किरणों की चिलचिलाती तपिष से मन झुलसता है, तो कभी ठण्डी बयार के मतवाले झौंके मन को सहला जाते हैं । शीत के थपेडे़ कभी दांत किटकिटा कर ठिठुरा जाते हैं तो कभी ठण्डक, तपिष, लू की उहापोह से सर्वथा दूर मन प्रकृति से एकाकार हो आह्लादित हो उठता है । हां, यह बसंत ही है ।
       बसंत का नाम सुनते ही मानव मन की कोमल संवेदनाएं और स्वतः स्फूर्त संक्रियाएं झंकृत हो उठती है । मन मयूर नाचने लगता है । चर-अचर हर प्राणी बसंत को अपने तरीके से जीता और भोगता है । यही वह ऋतु है जिसमें प्रकृति के विविध आयामी रंगों के रचाव के चलते व्यक्ति सांसारिक व्यग्रताओं व मानसिक संतापों से स्वयं को कुछ उबरा हुआ पाता है । 
       इस ऋतु को लोक मानस में उत्सव के रूप में मनाया जाता है जिसे बसंतोत्सव का नाम दिया गया है । माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमीं को बसंत पंचमी का त्यौंहार मनाया जाता है । बसंत का स्वागत-सत्कार इसी दिन किया जाता है । जान पङता है कि कभी इसी दिवस को बसंत ऋतु का आगमन या प्रारम्भ होता था । परन्तु बसन्तोत्सव के सम्बन्ध में विभिन्न धर्मशास्त्रों और धर्माचार्यो में मतैक्य नहीं है । विद्वान अपने पक्ष में तर्क का आधार देते हुए इसका आगमन अलग-अलग समय में बताते और पुश्ट करते रहे हैं । तमाम तरह के मत-मतान्तर के बावजूद पूरे काल-क्रम का अवलोकन करने पर दो तिथियों को इसका आगमन या प्रारम्भ प्रमाणित होता है । 
       बसंतोत्सव का बङा मनोहारी, रोचक एवं विषद् वर्णन वायु-पुराण में मिलता है । मालविकाग्नि मित्र तथा रत्नावली नामक नाटकों की भूमिकाओं में यह उल्लेख मिलता है कि ये दोनों ही नाटक बसंतोत्सव के उपलक्ष्य में अभिनीत व मंचित हुए थे। मालविकाग्नि मित्र के तृतीय अंक में बताया गया है कि इस दिन जनमानस ने अपने प्रियजनों के पास लाल अषोक के फूलों की सौगात भेजी थी । साथ ही कुलीन और उच्च घरानों की महिलाएं अपने पतियों के संग झूले में बैठ कर झूलती थी । निर्णय सिंधु के मतानुसार यह पूर्णिमांत की गणना करते हुए चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को अभिप्रमाणित होता है, जबकि पुरुषार्थ चिन्तामणि निर्णयामृत के संदर्भ से  माघ शुक्ला पंचमी को  इसका आगमन माना जाता है । वहीं दूसरी तरफ पारिजात मंजरी नाटिका प्रथम अंक में चैत्र मास की परिवा को बसंतोत्सव होना अभिलिखित किया गया है ।
       सारे मत-मतान्तर व विचार वैविध्य के बावजूद जब हम सामाजिक व्यवस्थाओं और लौकिक मान्यताओं से बसंत को जोङ कर देखते हैं तो माघ शुक्ला पंचमी को ही इसे स्वीकारा गया है और इसी दिन ऋतुराज बसंत का पदार्पण मानते हैं । 
       धर्मशास्त्रों एवं पंचांगों में यह भी उल्लेख मिलता है कि यदि यह पूरे पूर्वाह्न में हो तो दूसरे दिन अन्यथा पूर्व दिन ही बसंत पंचमी मनाई जानी चाहिए । बसंत पंचमी को ‘श्री पंचमी’ भी कहा गया है । प्रारंभ में यह विशुद्ध ऋतु-महोत्सव था परन्तु कालान्तर में इसके साथ कुछ धार्मिक कथाएं भी जुङती चली गई । 
       बसंत पंचमी का कोई व्रत-उपवास नहीं होता, केवल पूजन  ही होता है । इस दिन विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती का पूजन किया जाता है । मां शारदे की पूजा के अलावा नवाह्न प्राशन, प्रीति भोज, गाना-बजाना आदि का भी आयोजन किया जाता है । 
       देवी सरस्वती के इतिहास पर जब हम दृश्टिपात करते हैं तो पता चलता है कि इसके बारे में भी धर्माचार्यों में मतैक्य नहीं है । साथ ही बसंत पंचमी के अवसर पर किए जाने वाले सरस्वती पूजन के उद्देश्यों के सम्बन्ध में भी अलग-अलग दृश्टिकोण है । 
       सर्वप्रथम सरस्वती ऋग्वेद में एक पवित्र नदी, नदी देवता और वाग्देवता के रूप में अभिलिखत और चित्रित की गई । मूलतः यह शुतुद्रि, जिसे बाद में सतलज कहा गया, की सहायक नदी थी । जब शुतुद्रि अपना रास्ता बदल कर विपाषा नदी (जिसे बाद में व्यास कहा गया) में मिल गई तो सरस्वती उसके पुराने ढंग से बहती रही । सरस्वती राजस्थान के समुद्र में मिलती थी । सरस्वती को वेगवती नदी के रूप में पहचाना गया, जिसके किनारे राजा लोग बसते थे । हवन यज्ञ व मंत्रोच्चार करते थे । वर्तमान में सरस्वती को घग्घर कहते हैं । सरस्वती और दृशदवती के बीच का प्रदेष ब्रह्मावर्त कहलाता था, जो वैदिक ज्ञान और कर्मकाण्ड के लिए जगत-प्रसिद्ध था । सरस्वती का दैवी रूप में कल्पना का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है, जो पवित्रता, षुद्धि, समृद्धि और षक्ति की प्रदाता थी । सरस्वती का अन्य देवताओं पूशा, इन्द्र और मरुत से भी सम्बन्ध बताया जाता है, तो कई सूक्तों में सरस्वती के सम्बन्धों को यज्ञ देवता इडा व भारती से भी जोङा गया है । कालान्तर में भारती सरस्वती से अभिन्न मान ली गई । 
       पहले सरस्वती नदी देवता थी परन्तु ब्राह्मणकाल में उसको चाक के रूप में ही देखा गया । परवर्तीकाल में तो यह विद्या और कला की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रस्थापित मानी गई । 
पुराण में सरस्वती को ब्रह्मा की पुत्री और पत्नी दोनों ही कहा गया है, जबकि महाभारत में इसे दक्ष प्रजापति की पुत्री माना गया है । अन्य मत के अनुसार यह विश्णु की पत्नी है तथा इनमें व लक्ष्मीजी में सौत वाला जगत-प्रसिद्ध बैर भी चलता रहता है । यह भी कहा गया है कि सौतिया डाह के दृ्ष्टिगत ही जिस भक्त पर सरस्वती की कृपा होती है, लक्ष्मी उससे प्रायः रुष्ट रहती है । यहां यह महत्त्वपूर्ण है कि सरस्वती केवल विद्या या वाणी की देवी ही कही गई है, बुद्धि की नहीं । बुद्धि का मालिक व प्रदाता गणेष को माना गया है । 
सरस्वती की पूजा केवल वैदिक हिन्दू धर्मावलम्बी ही नहीं करते अपितु जैन और बौद्ध धर्म को मानने वाले भी इसके उपासक हैं । चीन-वासी इसे ‘नील सरस्वती’ के रूप में पूजते हैं, तो तिब्बतवासी ‘वीणा-सरस्वती’ के रूप में । सौभाग्यलक्ष्मी, धैर्यलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी, मोक्ष लक्ष्मी, राज लक्ष्मी, धान्य लक्ष्मी, धन लक्ष्मी, वीर लक्ष्मी, सत्यलक्ष्मी ये नौ लक्ष्मियां सरस्वती की सहचरी बताई गई है ।
यूं तो सरस्वती का वाहन हंस कहा गया है परन्तु मारवाङ में मयूर को भी इसका वाहन मानते हैं । कहीं-कहीं बकरे को भी इसके वाहन के रूप में वर्णित किया गया है । जिसका अर्थ षायद यही है कि यह अपने अनुयाइयों की मूर्खता और अज्ञानता से रक्षा करती है,  क्योंकि बकरा मूर्खता और मूढता का ही  प्रतीक है ।
धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि आश्विन शुक्ल के मूल नक्षत्र में सरस्वती का आह्वान करना चाहिए । नित्य सरस्वती पूजन करते हुए मूल से चौथे अर्थात श्रवण नक्षत्र को विसर्जित करना चाहिए । इस उल्लेख के अनुसार आश्विन शुक्ल की सप्तमी से दशमी तक चार दिवस सरस्वती की पूजा करनी चाहिए । वर्शकृत्य दीपिका के अनुसार इन चार दिनों में अध्ययन, अध्यापन व लेखन नहीं करना चाहिए, परन्तु बसन्त पंचमी के दिवस सरस्वती पूजन का कोई ठोस आधार या पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता । हां, प्राचीन समय में वैदिक अध्ययन का सत्र श्रावणी पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर उसी दिवस व तिथि को उत्सर्जन होता था । इस दिन सरस्वती पूजन शायद इसी का स्मृति-शेष है । 
दूसरी तरफ कुछ लोग एक कथा का हवाला देकर बसंत-पंचमी को सरस्वती पूजन को उपयुक्त ठहराते हैं । कथानुसार षुम्भ व निषुम्भ नामक दो राक्षसों ने पृथ्वी पर भयंकर आतंक मचा रखा था । उनके उत्पात और उपद्रव से सभी परेशान थे । इसी कारण पृथ्वी के वाशिदे जाकर ब्रह्माजी से मिले और इनसे बचाव की कोई जुगत करने को कहा । ब्रह्माजी सभी को साथ लेकर शिव के पास गए और राक्षसों से बचाव हेतु निवेदन किया । तब शिव ने अपने सचिव को भेजा परन्तु राक्षस इतने बलशाली थे कि उसके काबू में नहीं आए । अततः शिव ने अपनी हथेली से एक शक्ति पुंज छोङा, जो आकार रूप में सरस्वती का अभ्युदय था । सरस्वती पृथ्वी पर आई । दानव उसकी सुन्दरता पर रीझ गए तो उसने शर्त रखी कि जो भी युद्ध में उसे हरा देगा, वह उसी का वरण करेगी । इसलिए आप दोनों पहले आपस में युद्ध करके तय करो कि दोनों में बलषाली कौन है ? दोनों में से जो भी जीतेगा, वह मुझसे युद्ध लङेगा । सरस्वती के इसी वाक्-चातुर्य एवं विद्या के कारण एक राक्षस मारा गया । दूसरे को सरस्वती ने युद्ध में मार गिराया । मान्यता है कि जिस दिन सरस्वती ने उसे मारा, उस दिन माघ शुक्ला पंचमी तिथि थी । इसीलिए बसंत-पचमी को सरस्वती का पूजन करते हैं । कुछ लोग इस कथा-कथ्य का प्रतिवाद करते हुए कहते हैं कि शुम्भ-निशुम्भ नामक राक्षसों का संहार दुर्गा ने किया था, सरस्वती ने नहीं । वास्तविकता चाहे कुछ भी रही हो परन्तु इस दिन सरस्वती का पूजन तो होता ही है । 
पूजन विधान के अनुसार बसंत-पंचमी को प्रातः नित्य क्रिया से निवृत्त होकर शुद्ध आसन पर विराजित हो, सरस्वती का ध्यान किया  जाता है । शास्त्रानुसार सरस्वती पूजन के लिए गणेश पूजन, कलष पूजन, नवग्रह पूजन, शोडष मातृका पूजन व रक्षा-बंधन भी जरूरी है । 
सरस्वती के भोग हेतु मक्खन, दूध, दही, सफेद तिल के लड्डू, धान का लावा, ईख, ईख का रस, गुङ, शहद, शक्कर, सफेद चावल के कण, खीर, जौ, गैहूं के चूर्ण की घी मिली पीठी, मिठाई, नारियल का पानी, कशेरू, मूली, अदरख, पका हुआ केला, श्रीफल, बैर  या देशकाल व ऋतु के अनुसार अन्य कोई फल उपयोग में लिए जाते हैं । 
दूसरी विधि के अनुसार बसंत-पंचमी को लक्ष्मी व विश्णु का पूजन करना चाहिए । विष्णु मंदिर में जाकर अबीर, गुलाल, गंध, पीत-पुश्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजन करना चाहिए । बसंत पंचमी के दिन कृषक समुदाय अपनी तैयार फसल के खेत से नये धान का पौधा लेकर श्रीभगवान को अर्पित करते हैं, फिर नये धान का भोग लगा कर स्वयं भी नवान्न ग्रहण करते हैं । 
गांवों तथा शहरों में बसंत-पंचमी के दिन राग-रंग व मनोरंजन के कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं । इस दिन से फाल्गुन पूर्णिमा तक होली का माहौल रहता है । 
शास्त्रानुसार  बसंत-पंचमी को सरस्वती पूजन का अत्यधिक  महत्त्व है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

जगजाहिर